पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/३९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

थी (इंडियन एंटीक्वेरी, १६१३. पृ. २६५.)। कौटिल्य मे जो चंद्रगुप्तीय राजनियम बतलाए गए हैं, वे नारदस्मृति में भी प्रायः व्यों के त्यों दिए गए हैं। कामदकीय नीतिसार में चंद्र- गुप्त का अर्थशास्त्र पद्यबद्ध करके गृहीत किया गया है। उसमें चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य की तरह पाटलिपुत्र से एक बहुत बड़ा साम्राज्य स्थापित करने की कामना की गई है, जो बाद में कुछ अंशों में पूरी भी हुई थी। कालिदास ने, जो गुप्त काल में हुए थे, कहा है कि पृथ्वी केवल मगध के सम्राट के कारण ही राज- न्वती अर्थात् "न्यायशील राजावाली होती है ।* (रघुवंश)। पृ०८.-अठारहवीं शताब्दी के ग्रंथ । इस प्रकार के ग्रंथों से वाचस्पति मिश्र का राजधर्म भी सम्मिलित किया जा सकता है ( देखो राजनीतिरत्नाकर की प्रस्तावना, पृ० यू)। नीतिवाक्यामृत की दीका (जिसका समय उसकी प्राप्त हस्तलिखित प्रति के सं० १४६३ से पहले का ही होगा; उक्त ग्रंथ की प्रस्तावना ) भी इस वर्ग में सम्मिलित की जा सकती है। यह टीकाकार सनातन से चले आए हुए धर्मशास्त्र के सिद्धांतों तक ही परिमित नहीं रहता है। यह सोमदेव के समस्त मूल साधनों का उल्लेख करता है; और सच पूछिए तो यह टीका अर्थशास्त्र का एक संक्षिप्त रूप ही है।

इस कथन मे कालिदास ने काल संबंधी एक भूल की है।

मगध मे एकराज का शासनार भ बहुत बाद में वसु के समय से हुआ था (जरनल बिहार एंड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी, १); परंतु वह इस घटना को रघु समय की वतलाता है।