पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/५४

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(२३) मे होनेवाला विरोध अथवा सतभेद भी उतना ही अधिक अप्रिय और भयंकर समझा जाता था, जितना कि समिति में का विरोध या मतभेद समझा जाता था। इसमें सभा को नरिष्टा कहा गया है। सायण ने इस शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि नरिष्टा बहुत से लोगों के उस निर्णय अथवा निश्चय को कहते हैं जिसका उल्लंघन न हो सके। (नरिष्टा; अहिंसिता परैरनभिभाव्या,.. वहवः संभूय ययेकं वाक्यं वदेयुस्तद्धि न परैरतिलंध्यम् अतः अनतिलंध्यवाक्यत्वात् नरेण्टेति नाम ।) अतः अनतिलंध्य (जिसका उल्लंघन न हो सके) होने के कारण इसका नाम नरिष्टा पड़ा है। इस शब्द का उच्चारण करके वक्ता इसके संबंध मे कहता है कि जो लोग तुझमें एकत्र होकर बैठे उसके प्रस्ताव (२) हे सभा, हम लोग तेरा नाम जानते हैं। अवश्य ही तेरा नाम नरिष्टा है। जो लोग तुझमे श्राकर बैठे, वे मेरे साथ मिलकर- मेरे अनुकूल बातें करें। (३) इस सभा मे जो लोग पाकर एक साथ बैठे हैं, उनसे मै बल और ज्ञान प्राप्त करूँ । हे इंद्र, मुझे तू सफल कर । (४) यदि तुम्हारा मन कही दूर चला गया हो अथवा वह कहीं इधर उधर बंध गया हो, तो मैं उसे इस ओर प्रवृत्त करता हूँ। तुम्हारा मन श्राकर मुझमे रमे। [Sacred Books of the Tast के प्रथ वेद ४२. १३८ में तो अनुवाद दिया गया है, उसी का यह अनुवाद है। अंतर केवल यही है कि उसमें नरिष्टा शब्द का अर्थ "यानंद" अथवा "लोगो के लिये सब से अधिक अनुकूल" किया गया है (पृ० ५४४ )]