पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/५५

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( २४ ) हैं, वे मेरे अनुकूल ही बोलें। इससे यह सिद्ध होता है कि सभा में सब लोग स्वतंत्रतापूर्वक वाद विवाद करते थे; सभा का निश्चय सब लोगों के लिये बंधन रूप होता था और कोई उसका उल्लंघन नहीं कर सकता था। तात्पर्य यह कि सभा का भी उतना ही अधिक महत्व था जितना कि समिति का था। 8 १३. सभा का समिति के साथ अवश्य ही कुछ न कुछ संबंध था। परंतु इस समय जो कुछ सामग्री प्राप्त है, उसके आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि वह संबंध किस प्रकार का था अथवा उसका ठीक ठीक स्वरूप क्या था। संभवतः वह चुने हुए लोगों की एक स्थायी संस्था होती होगी और समिति के अधीन रहकर काम करती होगी। सभा शब्द का शब्दार्थ है-वह समूह जिसमें सब लोग एक साथ मिलकर प्रकाशमान हों। जो लोग उसमें बैठने के अधिकारी होते थे, वे मानों प्रकाश या शोभा से समन्वित होते थे। सभा का संघटन उनका विशेष रूप से उल्लेख होता था। वे विशेष आदर या सम्मान के पात्र होते थे। सभा का एक प्रधान अधिकारी होता था जो सभापति कहलाता था।

  • मिलाओ जयराम का-सहधर्मेण सद्भिर्वा भातीति सभा।

पारस्कर गृह्य ३. १३.। + अथर्व वेद ७. १२; शुक्ल यजुर्वेद १६. २८. मिलामो शुक्ल यजुर्वेद १६. २४. नमः सभाभ्यः सभापतिभ्यश्च । + देखो 8 १४-की दूसरी पाद-टिप्पणी। 3