पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/५६

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( २५ ) जान पड़ता है कि सभा में 'वृद्ध' भी होते थे। दूसरी प्राचीन संस्थाओं की कार्यकारिणी सभाओं में भी हमें 'वृद्ध' तथा 'पितर' मिलते हैं जो कार्यकारी अधिकारी होते थे (देखो ६ ४३)। ऊपर उद्धृत की हुई स्तुति में पितरों का जो उल्लेख है, वह संभवतः सभा के पितरों या वृद्धों का ही है। और कदाचित् यही भाव सायण ने इस रूप में प्रदर्शित किया है (हे पितरः पालकाः... पितृभूता वा हे सभासदो जनाः )। $१४. सभा का एक कार्य तो विलकुल ही स्पष्ट है। यह सभा राष्ट्रीय न्यायालय का कार्य करती थी। पारस्कर गृह्य सूत्र में सभा को 'आपत्ति और 'घोरतार कहा *। यह आपत्ति और घोरता संबंधी कार्य अपराधियों के लिये ही होती थी; और कदाचित् इसी लिये सभा के ये नाम भी ठीक उसी प्रकार पड़े थे, जिस प्रकार आजकल के फौजदारी न्यायालय अपराधियों सभा का न्याय- ३. १३. नादिर्नामासि विपिर मासि । जयराम ने इसका अनुवाद 'शब्द करनेवाला' और 'चमकनेवाला' किया है । ( नदनशीला दीप्ता), क्योंकि उसके साथ न्याय किया गया है (धर्मनिरूपणात् )। परंतु अोल्डेनवर्ग ने S. B. E. २६. ३६२. में इसका अनुवाद आपत्ति और घोरता ही किया है। यदि जयराम का मत ही ठीक हो, तो यहाँ त्विपि से अग्नि का अभिप्राय होगा, जो धर्मशास्त्रो के अनुसार न्याया- लयों में रखी जाती थी। इसका समर्थन कदाचित् इस बात से भी होता है कि वैदिक परिभाषा में 'सभ्य' भाग को भी कहते हैं। (अथर्व० ८.१०. ५.)। देखो १६ की तीसरी पाद-टिप्पणी। विदध में भी अग्नि