पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/५८

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. ( २७ ) न सा सभा यत्थ न संति संतो न ते संतो ये न भणति धंम। रागं च देसि च पहाय सोहं धम भणंता च भवन्ति संतो ॥* ६१५. वैदिक साहित्य मे सभा शब्द अनेक अर्थों में पाया है। उदाहरण स्वरूप कहीं उससे सभामंडप का अभिप्राय है, कहीं साधारण घर या मकान का, सभा ऋग्वेद काल कहीं चूतगृह का, और कहीं राजकीय के अंत में थी न्यायालय का। परंतु संघटन संबंधी जिस अर्थ मे हमने यह शब्द लिया है, उस अर्थ में यह ऋग्वेद में बहुत आगे चलकर एक स्थान पर अर्थात् १०.७१. १०. मे आया है, जिसका उल्लेख ऊपर हो चुका है। इसलिये समिति के प्रारंभ काल की भॉति ससा का प्रारंभ काल भी ऋग्वेद काल के विलकुल अंत मे समझना चाहिए। उसका अस्तित्व भी प्रायः उतने ही लमय तक था, जितने समय तक समिति का अस्तित्व था आगे चलकर जव सब प्रकार के अधिकार आदि राजाओं और सम्राटों आदि में केंद्रीभूत हो गए थे, तब भी, जैसा कि हम आगे चलकर बतलावेगे, राजा की न्यायसभा में प्राचीन काल की अपनी अनेक मूल बातें बची रह गई थीं जातक ५. ५०६. इस पद्य का पहला चरण व्यास ने अपनी स्मृति मे कानूनी सभा की व्याख्या में दिया है (अपरार्क य० २. ४.)। उससे संतो (सजन या भला आदमी ) के स्थान पर व्यास ने वृद्धाः शब्द दिया है, जिससे जान पड़ता है कि सभा में संभवतः पहले केवल वृद्ध अथवा बड़े वृढे ही रहा करते होगे।