पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/७२

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( ४१ ) है। वास्तव में डा० जोली ने नारद के सातवें श्लोक में गण का अर्थ समूह किया है और गणार्थम् का अर्थ 'समाज की ओर से दिया है। यद्यपि यह अर्थ नारद के पारिभाषिक भाव को नितांत अनुकूल नहीं है, तथापि वह उसके मूल भाव के बहुत कुछ समीप पहुंच गया है और बहुत कुछ उसी के अनुकूल है। आरंभिक गुप्त काल के कोशकार अमर ने (जो संस- वतः चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के समय में हुआ था) अपने कोश में राजक और राजन्यक इन दोनों पारिभाषिक शब्दों की परिभाषा करते हुए कहा है कि राजक का अर्थ राजाओं का गण और राजन्यक का अर्थ (क्षत्रियों, साधारण शासकों) का समूह है। (उसमें लिखा है...अथ राजकम् । राजन्यकं च नृपतिक्षत्रियाणाम् गणे क्रमात् । २, ८. और ११, ३-४ । ) $ २६. अवदानशतक में कहा गया है कि गण राज्य किसी राजा के राज्य का विलकुल उलटा या विपरीत है। बुद्ध के समय में उत्तरी भारत के मध्य देश के वणिक गण के संबंध में दक्षिण भारत मे गए थे। जब दक्षिण श्रवदानशतक के राजा ने उनसे पूछा-'हे वणिको, वहाँ (उत्तर भारत मे) कौन राजा है ? तब उन्होने उत्तर दिया- मिलामो जगन्नाथ, 'श्रादिशब्दो गणसंधादिसमूहविवक्षया' जोली की नारद स्मृति (मूल) पृ० १६३ का नोट । नीलकंठ ने अपने व्यवहार- मयूख (संविद् व्यतिक्रमवाला अध्याय) में गण और संघ को एक ही बतलाया है। +S. B. E. खण्ड ३३, पृ० ३४६, श्लोक २४ ।