पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/७३

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जैन व्याख्या ( ४२ ) 'महाराज, कुछ देशों मे तो गण का शासन है और कुछ देशों में राजाओं का* ।' यहाँ राजा द्वारा होनेवाले शासन को गण द्वारा होनेवाले शासन का विपरीत बतलाया गया है। मानों उस समय राज्यों के यही दो विभाग अथवा रूप थे। और यदि राजा के द्वारा होनेवाले शासन के विपरीत कोई शासन हो सकता है, तो वह प्रजातंत्र शासन ही है। ६ २७. एक जैन ग्रंथ में 'गण' की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि मानव समाज के संबंध में 'गण' मनुष्यों का ऐसा समूह है जिसका मुख्य गुण है मच-युक्त अथवा विवेक-युक्त होना। उस पथ के अनुसार इस पारिभाषिक शब्द का कुछ दुरुपयोग भी होता है। उसके सदुपयोग के संबंध में दिए हुए उदाहरण इस प्रकार हैं- 'मल्लो का गण' (एक प्रसिद्ध प्रजातंत्री समाज जिसका आगे चलकर उल्लेख किया गया है ) और 'पुर का गण' (देखो पौर के संबंध मे अठाइसवॉ प्रकरण)। उसके दुरुपयोग के उदाहरण स्वरूप टीकाकार ने वसुओं का गण (पसु देवताओं का गण ) दिया है। उसका अ-सामाजिक उपयोग संगीत में एड० स्पेयर, पेट्रोग्रड १६०२, भाग २, पृ० १०३. 'अथ मध्य- देशाद्वणिजो दक्षिणापथ गताः । तैः राज्ञो महाकफिणस्य प्राभूत- मुपनीतम् । राज्ञा उक्त' भो वणिजः कस्तत्र राजेति । वणिजः कथ- यन्ति । देव कोचशा गणाधीना केचिद्राजाधीना इति ।' इस उद्ध- रण के लिये मैं श्रीयुक्त रामप्रसाद चन्द का अनुगृहीत हूँ। +देखो साता प्रकरण ।