पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/७४

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( ४३ ) मिलता है ( भाव गण)। टीका के अनुसार असंघटनात्मक गणों मे ( समूह बनाने के ) उद्देश्य या विवेक का अभाव होता है; जैसे वसुगण (वसु देवताओं का समूह ) । असं- घटनात्मक समूह के संबंध में इस शब्द का व्यवहार ध्यान देने योग्य है। संघटनात्मक गण ही वास्तविक गण है और जैन ग्रंथकार की दृष्टि मे वह गण मन से युक्त होता है। मलों अथवा पौरों के राजनीतिक समूह की भॉति वह मनुष्यों का एक संघटित और विवेकयुक्त समूह होता है। वह समूह कुछ विशिष्ट नियमों के अनुसार संघटित होता है और उस समूह या भीड़ भाड़ के विपरीत होता है, जो यों ही अथवा संयोगवश एकत्र हो जाती है। ६२८. जब हम इस वाक्य पर महाभारत मे दिए हुए गण संबंधी विवेचन और जातक तथा अवदान मे पाए हुए उल्लेखों पर विचार करते हैं और यह देखते हैं कि पाणिनि ने संघ गणः। सचित्तादि समूहो लोगम्मि गणो उ मल्लपूरादि । कुप्पावयणम्मि लोउत्तर प्रोसन्नगीयाण । जैन प्राकृत विश्वकोश में उद्धृत किया हुआ श्रश। अभिधान-राजेंद्र (रतलाम १६१६, खंड ३, पृ०८१२) मे इसकी व्याख्या से कहा गया है-लचित्तसमूहो यथा मल्ल. ...अचित्तसमूहो यथा वसुगणः कुप्रवचने द्रव्यगणो यथा चरकादिगणः। चरकः परिव्राजकः । (पृ० ८१४) मिलायो अचित्त के संबंध के पाणिनि ४, २. ४७ और ४, ३, ६६ जहाँ राजनीतिक राजभक्ति को सचित्त ( चित्त, विचार या विवेकयुक्त) माना गया है। साथ ही देखो $ ११ तथा उसके नोट ।