पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/८८

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( ५७ ) (१) मद्र * (3) वृजि (३) राजन्य । (४) अंधकवृष्णी (५) महाराज + (६) भर्ग यद्यपि पाणिनि ने इन सव को कहीं संघ नहीं कहा है, तथापि नियमों से सिद्ध होता है कि पाणिनि को यह वात मद्भवृज्योः कन् ॥ ४ ॥ २॥ १३१ ॥ राजन्यादिभ्यो वुज ॥ ४ ॥२॥ २३ ॥ साथ ही दूसरे प्रसिद्ध प्रजातंत्री समाजो के नामो के लिये इस पर गणपाठ देखो। राजन्यवहुवचनद्वन्देन्धपिणषु ॥ ६ ॥ २ ॥ ३४ ॥ + महाराजाहन ॥ ४ ॥३॥ १७ ॥ देखो आगे महाराज जाति के संबध मे किया हुआ विवेचन $8 ११८, और १२८ में। न प्राच्यभर्गादि-यौधेयादिभ्यः ॥ ४॥ १॥ १७८ ।। यहीं भर्ग लोग प्राच्य या पूर्वी कहे गए है। महाभारत, सभापर्व ३०. १०. १४ के अनुसार ये लोग वत्सो की मीमा और दक्षिणी मल्लो के बीच में थे; और ये दोनो विदेहो से बहुत दूर नहीं थे। यौधेयो की भांति ये लोग भी उस समय एक राजनीतिक वर्ग के ही रूप में थे और इसी लिये पाणिनि ने इन्हें उन्हीं के समूह में रखा है (४. १. १६८- ७८)। बौद्ध ग्रंथों में भर्गों का उल्लेख प्रजातनवालो के समूह मे है और उनका विस्तार कोशल से पूर्व में कोशांबी तक बतलाया गया है और उन्हें वत्सो के ठीक बाद ही रखा गया है । (Buddhist India पृ० २२ और जातक ३, १५७.)