पृष्ठ:हिंदू राज्यतंत्र.djvu/९२

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वृष्णियों के सदस्यों के लिये नहीं होता, बल्कि उनके केवल राजन्यों के लिये ही होता है; और राजन्य किसी वंश के वे नेता होते हैं जो शासन का अधिकार प्राप्त कर लेते अथवा शासक हो जाते हैं। इस प्रकार के द्वैध शासकों के कई वर्गों के नाम साहित्य मे रक्षित हैं। शिनि और वसुदेव तथा श्वाफल्क और चैत्रक आदि राजन्यों के वर्गों के नाम काशिका* मे आए हैं और अक्रूर के वर्ग तथा वासुदेव के वर्ग का उल्लेख कात्यायन मे है।। महाभारत में इस बात का उल्लेख है कि वासुदेव और असेन बभ्रु अपने वर्गों का नेतृत्व करते थे ($ १६७)। 8 ३६. जान पड़ता है कि वृष्णि-अंधक का संयुक्त संघ था जिसका शासनाधिकार दो राजन्यों को प्राप्त था और दोनों के प्रतिनिधि स्वरूप दोनों के अलग अलग वर्ग थे; और कदाचित् अमर का राजन्यक भी यही था । कात्यायन ने अक्रूर के काशिका पृ० ५४६. चैत्रक-रोधक कदाचित् पूरा नाम था । काशिका मे ऐसा ही दिया है। परंतु दीक्षित ने रोधक शब्द छोड़ दिया है और आगे चलकर काशिका में भी ऐसा ही किया गया है। + देखो कात्यायन कृत पाणिनि का वार्तिक ४. २. १०४. अकर- वयः। अक्रूरवीणः । वासुदेववीणः । वर्ग के संबंध में विशेप वाते जानने के लिये जानपद के प्रकरण में $२५८ देखो। उसका वास्तविक अर्थ है-शासन-सभा या काड- सिल । वृहस्पति ने (विवाद-रलाकर पृ० ५६६ में) गण, पूग तथा इसी प्रकार की और संस्थाओं को वर्ग कहा है। मित्र मिश्र ने वर्गिन की व्याख्या करते हुए उसे गण कहा है (वीरमित्रोदय पृ० १२)। देखो