सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हितोपदेश.djvu/१३८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सन्धि १४५ है। उसके मन्त्री जैसा तो मैंने अपने जीवन में देखा ही नही। चित्रवर्ण : यदि ऐसा है तो तूने उसे ठग किस प्रकार लिया ? मेघवर्ण : महाराज, विश्वास दिलाकर तो प्रत्येक को सहज मे ही ठगा जा सकता है । अपनी गोद मैं सुलाकर यदि किसी को मार दिया जाए तो उसमें क्या वहादुरी ! हां, उस चतुर मन्त्री ने तो मुझे पहले ही पहचान लिया था। किन्तु हिरण्यगर्भ बड़ा ही सज्जन है । वह ठगा गया । नीति कहती है कि अपने जैसा सज्जन प्रत्येक को नही समझना चाहिए। ऐसा करने पर जो होता है वह मैं सुनाता हूँ।