पृष्ठ:हितोपदेश.djvu/६१

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हितोपदेश राजा बहुत समय तक जल में रहने के बाद कनकपत्तन नाम के नगर में पहुंचा। उसे और अधिक आश्चर्य हुआ जब उसने वहाँ भी उसी कन्या को पलंग पर बैठकर वीणा वजाते देखा । कन्या के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर राजा वही मूर्तिवत् खड़ा रहा। कुछ ही समय बीता था कि कन्या की एक सहेली राजा के पास आई । राजा ने उत्सुकतापूर्वक पूछा : परिचारिके ! पलंग पर बैठकर मधुर वीणा बजाने वाली यह कौन कन्या है ? परिचारिका : यह विद्याओं के राजा कन्दर्पकेलि की पुत्री है। रत्नमञ्जरी इसका नाम है । इसकी प्रतिज्ञा है कि जो सर्व- प्रथम कनकपत्तन में आकर मुझे देखेगा, वही मेरा पति होगा। मैं उसी से जैसे भी होगा विवाह अवश्य करूँगी। सेविका राजा को रत्नमञ्जरी के पास ले गयी। दोनों ने गान्धर्व विवाह कर लिया और राजा वही सानन्द रहने लगा। एक दिन रत्नमञ्जरी ने कहा-महाराज, यहाँ पर आप जितनी वस्तुएँ देखते है वे सब आपके ही उपभोग की है । परन्तु इस विद्याधरी नाम की स्वर्ण रेखा को कभी भूलकर भी न छूना। रत्नमञ्जरी की बात सुनकर राजा की उत्सुकता वढ़ गई। वह सोचने लगा-इस स्वर्णरेखा में ऐसी कौन-सी विशेषता है जो रत्नमञ्जरी ने इसे छूने तक के लिये मना किया। उसका कौतूहल बढता ही गया और यहां तक बढ़ गया कि राजा ने उस स्वर्ण रेखा को छू लिया। राजा ने उसे केवल चित्रमात्र समझा था। पर ज्योही उसने उसे छुआ, रेखा ने पाद-प्रहार