सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हितोपदेश.djvu/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दुष्ट का साथ न दो न स्थातव्यं उ गन्तव्यं दुर्जनेन समं क्वचित् । . . . दुष्ट के साथ न तो ठहरना चाहिए और न कभी उसके साथ कही जाना ही चाहिए। . . . उज्जयनी नगर के मार्ग में एक पीपल का वृक्ष था । उस पर एक कौआ और एक हंस रहते थे। वृक्ष की छाया इतनी विशाल थी कि पथिक उसके नीचे विश्राम किया करते थे। एक दिन एक शिकारी उसी मार्ग से जा रहा था। ग्रोप्म ऋतु थी। मार्ग तय करना कठिन हो रहा था। शिकारी उस वृक्ष की छाया के नीचे पहुंचा और अपना धनुप-बाण एक ओर रखकर विश्राम करने लगा। उसे नीद आ गई और वह सो गया । अचानक निद्रा मे उसका मुंह खुल गया । धीरे-धीरे वृक्ष की छाया का रुख भी बदला और सूर्य की गर्म किरणें उसके मुंह पर पड़ने लगी। शिकारी की इस अवस्था पर हम को दया आई। उसने अपने पंख फैला लिए और इस भांति वृक्ष की शाखा पर बैठ गया कि शिकारी के मुंह पर छाया हो गई।