पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/११०

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si हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय केवल प्रेमानुभूति हो सकती है, कर्मकांड तो वस्तुतः परमात्मा को हमारी आँखों से छिपाने का काम करता है। सर्वत्र उसकी सत्ता न्याय रही है। मनुष्य का हृदय भी उसका मंदिर है, अतएव बाहर न भटककर उसे वहाँ हूँढना चाहिए। तात्विक दृष्टि से तो यह भावना रामानन्द में ही पूर्ण हो गई थी, कबीर ने उसको प्रतीक का वह प्रावरण दिया जिसमें “मजनू को अल्लाह भी लैला नजर आता है।" प्रारम्भिक शास्त्रार्थों की कटुता को जाने दीजिए, इसका सामना तो प्रत्येक नवीन विचारशैली को करना पड़ता है, परन्तु वैसे इस नवीन विचारशैली में कोई ऐसी बात न थी जिससे कोई भी समझदार हिन्दू अथवा मुसलमान भड़क उठता । मूर्ति परमात्मा नहीं है, यह हिंदुओं के लिये कोई नवीन बान नहीं थी। उनके उच्चातिउच्च वेदांती. दार्शनिक सिद्धान्त इस बात की सदियों से घोषणा करते चले आ रहे थे और मूर्तिभंजक मुसलमानों को तो यह बात विशेष रूप से रुची होगी। यद्यपि हिन्दू अद्वैतवाद, जिसे कबीर ने स्वीकार किया था, मुसलमानी एवेश्वरबाद से बहुत सूचम था, तथापि दोनों में ऐसा कोई स्थूल-विरोध दृष्टिगत न होता था जिससे वह मुसलमान को अरुचिकर लगता । इसमें संदेह नहीं कि मनुष्य और परमात्मा की एकता की भावना मुसलमानों की अजाह-भावना के बिलकुल विपरीत है, जो समय-समय पर मुस्लिम धार्मिक इतिहास में कुफ करार दी गई है. और प्राणहानि के दंड के योग्य मानी गई है। फिर भी सूफी मत ने, जिसे कुरान का वेदांतो भाष्य समझना चाहिए, मुसलमानों को उसका घनिष्ठ परिचय दे दिया था। मंसूर हल्लाज ने 'अनलहक' ( मैं परमा:मा हूँ ) कहकर सूली पर अपने प्राण दिए। इस कोटि के सच्ची लगनवाले सूफियों ने धर्माध शाहों और सुलतानों के अत्याचारों की परवा न कर भली भाँति सिद्ध कर दिया कि उनका मत और विश्वास ऐसी वास्तविक सत्ता है जिसके लिये प्रसन्नता के साथ भाषो का सलिदान कर दिया जा सका है। अतएव जन इस चीन