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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१२१

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दूसरा अध्याय ३६ कबीर हरि बिन जन्म वृथा खोयो रे । कहा भयो अति मान बड़ाई, धन मद अंध मति सोयो रे ।। अति उतंग तरु देखि सुहायो, सैवल कुसुम सूवा सेयो रे । सोई फल पुत्र-कलत्र विपै सुष, अंति सीस धुनि-धुनि रोयो रे ।। सुमिरन भजन साध की संगति, अंतरि मन बैल न धोयो रे ।। रामानंद रतन जम त्रास, श्रीपति पद काहे न जोयो रे ।। इसमें उन्होंने निवृत्ति मार्ग का पूर्ण उपदेश दिया है। रामानंद जी की विचार-धारा बहुत उदार थी जिसके कारण उनके उपदेशामृत का पान करने के लिए ऊँच-नीच सब उनके पास घिर आते थे। उनके शिष्यों में से, जिनका निर्गुण विचारधारा ६.रामानंद से संबंध है, पीपा, सधना, धन्ना, सेन, रैदास, के शिष्य और शायद सुरसुरानंद हैं।। पीपा गँगरौनगढ़ के खीची चौहान राजा थे और अपनी छोटी रानी सीता के सहित रामानंद जी के चेले हो गये थे। जनरल कनिंघम के अनुसार पीपाजी जैतपाल से चौथी पीढ़ी में हुए थे । [ (१) जैतपाल, (२) सावतसिंह, (३) राव करवा, (४) पीपाजी, (५) द्वारिकानाथ, (६) अचलदास । ] अबुलफजल ने लिखा है कि मानिकदेव के वंशज जैतपाल ने मुसलमानों से मालवा छीन लिया था। यह घटना पृथ्वीराज की मृत्यु के १३१ वर्ष पीछे सं० १३८१ (सन् १३२४ ई० ) की बताई जाती है। जैतराव मानिकदेव से पाँचवीं पीढ़ी में हुए थे और मानिकदेव पृथ्वीराज के समकालीन थे। फिरिश्ता अनुसार पीपाजी से दो पीढ़ी पीछे अचलदास से सुलतान होशंग गोरी ने हिजरी सन् ८३० अर्थात् वि० सं० १४८३ या सन् १४८६ ई० में गैंगरौनगढ़ छीन लिया । १

  • पौड़ी हस्तलेख', पृ० ४९३ (अ)।