पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१२८

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४६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय मगहर में ठहर जाना असंभव नहीं। यहीं से कबीर पर हिंदू भावों और योगमूलक विरक्ति का प्रारंभ हो जाता है। जान पड़ता है कि कबीर को योग की बातों का ज्ञान गोरखपंथी योगियों से ही हुआ था । योगाभ्यास के द्वारा उनको परमात्मा की झलक तो मिल गई थी परंतु वे किसी ऐसे पहुंचे योगी के पल्ले न पड़े जो उनको पूर्णानुभूति की दशा तक पहुँचा देता। उनके ग्रन्थों में हम गोरखनाथ की तो भूरि-भूरि प्रशंसा पाते हैं किंतु अधकचरे गोरखपंथियों की निंदा । माया के वास्तविक स्वरूप को गोरखनाथ अच्छी तरह जानते थे, इसी से वे उसको लक्ष्मण की भाँति त्याग सके थे । नारी से विरक्त होकर वे अमर हो गये थे। कलिकाल में गोरखनाथ ऐसा भक्त हुआ कि माया में पड़े हुए अपने गुरु से उसने राज्य छुड़वा दिया + जिस आनंद का सुखदेव भी बहुत थोड़ा ही सा उपभोग कर सके थे, उसका पूर्णोपभोग गोरखनाथ, भर्तृहरि, गोपीचन्द आदि योगियों ने किया था।= अधकचरे जोगियों को उन्होंने मेकालिफ़ ने गलती से दूसरी पंक्ति का अर्थ किया है ‘पहले मैने काशी में दर्शन पाये और फिर मगहर में आकर बसा', जो प्रसंग के प्रतिकूल है और स्पष्ट ही गलत है। राम गुन बेलड़ी रे अवधू गोरषनाथि जाणी। -क० ग्रं०, प० १४२, १६३ । निरगुण सगुण नारी संसारि पियारो, लखमणि त्यागी, गोरषि निवारी। -वही, पृ० १६६, २३२ । + गोरषनाथ न मुद्रा पहरी मस्तक हू न मुंडाया। ऐसा भगत भया कलि ऊपर गुरु पै राज छुड़ाया ॥ -वही, पृ० १८६, २९८ । = ता मन का कोइ जानै भव । रंचक लीन भया सुषदेव ॥ गोरष भरथरि गोपीचन्दा। ता मन सों मिलि करें अनंदा ॥ -क० ग्रं, पृ. ६६, ३३ । 7