दूसरा अध्याय थे । हम कहते-कहते थक गये [ परंतु लोग यह भेद हो नहीं समझ पाते]. क्या आश्चर्य है कि कबीर इस पद में रामानन्द को साक्षात् हरि बना रहे हों ? गुरु तो उनके मतानुसार परमात्मा होता ही है । रामानंदी संप्रदाय में तो रामानन्द राम के अवतार माने ही जाते हैं, नाभाजी ने भी उनको कुछ ऐसा ही माना है- श्रीरामानंद रघुनाथ ज्यों दुत्तिय सेतु जग-तरन कियो । कबीर का 'अापन अस किये बहुतेस' और नाभाजी का 'दुतिय सेतु जग-तरन कियौ' अगर एक साथ पढ़े जाएँ तो माजूम होगा कि दोनों रामानंद के संबंध में एक ही बात कह रहे हैं। कबीर-ग्रंथावली के एक पद में कबीर ने परमात्मा के सम्मुख परमतत्त्व-रूप, सुख के दाता, अपने साधु-गुरु की खूब प्रशंसा की है, जिसमें सच्चे गुरु के गुण पूरी मात्रा में विद्यमान थे, जिसने हरि-रूप रस को छिड़ककर कामाग्नि से उसे बचा लिया था और पाषंड के किवाड़ खोलकर उसे संसार-सागर से तार दिया था- राम! मोहि सतगूर मिले अनेक कलानिधि, परम-तत्व सुखदाई । काम-अगिनि तन जरत रही है, हरि-रसि छिरकि बुझाई ।। दरस-परस ते नासी, दीन रटनि ल्यो पाई। पाषंड-भरम-कपाट खोलिक, अनभै कया सुनाई ।। यह संसार गंभीर अधिक जल, को गहि ल्यावै तीरा। नाव जहाज खेवइया साधू उतरे दास कबीरा॥ ये सब बातें रामानंद पर ठीक उतरती हैं। उस समय मध्यदेश में वही एक साधु था जिसने पाषंड के दरवाजे खोल डाले। ग्रंथ साहब में कबीर का एक पद है जिसमें उन्होंने कहा है कि 8 कअं०, पृ० १५२, १६० ।
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