हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय मैंने अपने घर के देवताओं और पितरों की बात को छोड़कर गुर्स के शब्द को ग्रहण किया है। इससे प्रकट होता है कि उन्होंने कोई ऐसा गुरु बनाया था जिसके लिए उन्हें अपने कुल की परंपरा छोड़नी पड़ी। अगर शेख तकी उनके गुरु होते तो वे यह बात क्यों कहते ? अतएव यह बात असंदिग्ध है कि रामानंद कबीर के गुरु थे। रामानन्द के अतिरिक्त कबीर के समकालीनों में से एक ही व्यक्ति ऐसा है जिसका नाम कबीर ने विशेष श्रादरपूर्वक लिया है। इनका नाम कबीर ने पीर पीताम्बर बतलाया है जिनके पास जाना वे हज अथवा तीर्थाटन समझते थे। कबीर ने उनका जो वर्णन किया है ( उनका कल कीर्तन, उनके गले में की कंठी और जिस पर का 'राम'), वह यही सूचित करता है कि कि वे वैष्णव थे जो रामानन्द की ही भाँति हिंदू-मुसलमान का भेद-भाव नहीं मानते थे और इसी लिये शायद कबीर को श्रद्धा के भाजन हुए। उनके नाम के पहले आये हुए 'पीर' शब्द को केवल 'गुरु' का पर्याय समझना चाहिये । उनकी महिमा कबीर ने यहाँ तक गाई कि देवर्षि नारद, शारदा, ब्रह्मा और लक्ष्मी को भी उनकी सेवा करते हुए दिखाया है। पता नहीं कि ये पीर पीतांबर रहनेवाले कहाँ के थे। 'गोमती-तीर' जौनपुर की ओर संकेत करता है
- घर के देव पितर की छोड़ी गुरु को सबद लयो।
-'ग्रन्थ', ४६२, ६४॥ ४ हज्ज हमारी गोमती-तीर । जहाँ बसहिं पीतम्बर पीर ॥ वाहु वाहु क्या खूब गावता है । हरि का नाम मेरे मन भावता है। नारद सारद करहिं खवासी । पास बैठी विधि कँवला दासी ।। कंठे माला जिहवा राम । सहस नाम लै, लै करौ सलाम । कहत कबीर राम-गन गावो । हिंदू तुरुक दोउ समझावौ । -क० ग्र०, पृ० ३३०, २१५ ।