प्रस्तावना इस रचना के अंतर्गत उन हिंदी कवियों की साम्प्रदायिक विचार- धारा को प्रस्तुत करने की चेष्टा की गई है जिन्हें यथोचित न होने पर भी साधारणतया निर्गुण संतकवि कहा जाता है और इसी कारण इसके शीर्षक का स्पष्टीकरण हो जाना भी नितांत आवश्यक है । संतकवियों के इस संप्रदाय के विचारों को निर्दिष्ट करने के लिए अधिकतर 'संतमत' एवं 'निर्गुणमत' नामक दो शब्दों के प्रयोग होते हैं । ("संत' शब्द की संभवतः दो प्रकार की व्युत्पत्ति हो सकती है । या तो इसे पालिभाषा के उस 'शांत' शब्द से निकला हुआ मान सकते हैं जिसका अर्थ निवृत्ति-मार्गी वा विरागी होता है अथवा यह उस 'सत्' शब्द का बहुवचन हो सकता है जिसका प्रयोग हिंदी में एकवचन जैसा होता है और जिसका अभिप्राय 'एकमात्र सत्य में पिश्वास करने- वाला' अथवा उसका पूर्णतः अनुभव कर लेनेवाला व्यक्ति समझा जाता है। इन दोनों ही दृष्टियों के अनुसार इस शब्द का प्रयोग इन संतकवियों के लिए उपयुक्त ठहरता है, यद्यपि इन दोनों में से दूसरे को 'संत' शब्द का मूल साधारणतः मान लिया गया है। परन्तु 'सत्' शब्द, सत्य का आशय प्रकट करने के अतिरिक्त सद्भावा की भावना
- -नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
-'भगवद्गीता' (१-१६)। 1-सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते । प्रशस्ते कमणि तथा सच्छब्दः पार्थ युज्यते ॥ वही ( १७-२६ ) ।