पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१५

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(ग ) का भी द्योतक है और इस प्रकार 'संत' शब्द एक अत्यन्त व्यायक अभिप्राय का सूचक बन गया है और इसे दुर्जन पुरुष के विपरीत एक सत्पुरुष वा सज्जन का समानार्थक भी समझा जाता है ।* धार्मिक जीवन के क्षेत्र में भी इस शब्द के अन्तर्गत वे स्पष्ट सगुणोपासक -संत आ जायेंगे जो सूरदास एवं तुलसीदास की भाँति इन संतकवियों से नितांत भिन्न विचारधारा के समर्थक हैं। निर्गुणमत' नाम भी बहुत उपयुक्त नहीं है । इनकी सांप्रदायिक बातों को यदि छोड़ भी दें तो भी हम देखते हैं कि ये संत न तो परमात्मा के सोपाधि रूप का पूर्णतः वहिष्कार करते हैं और न उसके निरुपाधि स्वरूप को ही अपना अंतिम आश्रय निश्चित करते हैं। क्योंकि वास्तविकता इन दोनों से भिन्न है और वह तभी उपलब्ध हो सकती है जब इन दोनों से ही ऊपर उठा जाय । जब इस संप्रदाय के पिछले संतों में उक्त दोनों से ऊपर उठने की यह प्रवृत्ति अधिक स्पष्ट हो जाती है और एक प्रकार की स्थूल साम्प्रदायिकता का रूप ग्रहए कर लेती है तो इस शीर्षक की अनुपयुक्तता और भी स्पष्ट हो जाती है। किंतु, इससे अधिक उपयुक्त शब्द के अभाव में मुझे इसी का प्रयोग करना पड़ रहा है, क्योंकि इसके लिए परम्परागत व्यवहार का समर्थन प्राप्त हो चुका है और जान पड़ता है कि कबीर आदि ने इसे ग्राह्य समझकर स्वीकार भी कर लिया था। फिर भी इतना स्मरण रहना चाहिए कि इन संतों को भी

  • -बंदउँ संत असजन चरणा ।

तुलसीदास-'रामचरितमानस' (१-५)। तं सन्तः श्रोतुमर्हन्ति सदसद्व्यक्तिहेतवः। कालिदास-'रघुवंश' (१-१० ) । -संतन जात न पूछो निर्गुनिय । कबीर शब्दावली भा० १, पृ० ११० ।