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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१५१

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। -- दूसरा अध्याय और रानस-मदिनी भगवती रण-चंदी का आवाहन किया। उन्होंने गुरुत्रों की परंपरा का अन्न कर दिया और उनके स्थान पर ग्रंथ को पूज्य उहराया, परन्तु साथ ही शस्त्रास्त्रों को भी वे पूज्य समझते थे। उनमें साधु और सैनिक दोनों का एक में सनन्वय हुआ । ज्ञान को भी उन्होंने चीरता के उद्दीपनों में सम्मिलित किया-- धन्य जियो नेहि को जग मे मुख ते हरि, चित मे जुद्ध विचारे । देह अनित्ता न नित्त रहे, जस नाव च भवसागर तारे । धीरज घाम बनाय इहै तन. बुद्धि सुदीपकं ज्यों उजियारै। ज्ञानहिं की चढ़नी मनो हाथ लै कादरता कतवार बुहारै ॥ इस प्रकार सिख-संप्रदाय सैनिक धर्म में बदल गया और भावी सिख साम्राज्य की पक्की नींव पड़ी। नानक की मृत्यु के छः वर्ष बाद अहमदाबाद में दादू का जन्म हुा । ये निर्गुण संत मत के बड़े पुष्ट स्तंभों में से हुए। इन्होंने राजपूताना और मंजाब में उपदेश का कार्य किया । दादू का गुरु कौन था, इस विषय में बड़ा वाद-विवाद चला है । जनश्रुति तो यह है कि परमात्मा ने ही बुड्ढा के रूप में उन्हें दीक्षित किया था। दादू ने एक साखी में स्वयं ही यह बात कही है । परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि बूढ़ा रक्त- मांस का आदमी नहीं था । क्योंकि निर्गुण पन्थ में गुरु साक्षात् परमात्मा माना जाता है । म० म० पं० सुधाकर द्विवेदी का मत है कि दादू का गुरु कबीर पुत्र कमाल था। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से यह ठीक नहीं जान पड़ता । दादू ने स्थान-स्थान पर कबीर का उल्लख बड़े आदर के साथ किया है जिससे प्रकट होता है कि वह उनको उपदेष्टा गुरु से भी बढ़कर समझते थे, यहाँ तक कि साक्षात् परमात्मा मानते थे । दादू की वाणी विचारशैली, साहित्यिक प्रणाली और विषय-विभाजन सबकी दृष्टि से कबीर की वाणी का अनुगमन करती है। यह. इस बात का दृढ़ प्रमाण ४. दादू