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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१५९

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दूसरा अध्याय

प्राध्यात्मिक जीवन में उनको वस्तुतः दीक्षित करनेवाले गुरु मुरार स्वामी थे। सन्तवाणी संग्रह में उनके गुरु का नाम गलती से विठ्ठल द्रविड़ लिखा हुश्रा है । विठ्ठल द्रविड़ तो उनके नाम-मात्र के दीक्षागुरु देवनाथ के गुरु भाऊनाथ के गुरु थे। कहते हैं कि सिखगुरू तेगबहादुर ने कड़ा में आकर उनसे भेंट की थी। परिचयी में इस बात का उल्लेख नहीं है। हाँ, औरङ्गजेब द्वारा गुरु तेग के वध का उल्लेख अवश्य है। औरगजेब बहुत कट्टर तथा असहिष्णु मुसलमान था ; किंतु कहते हैं कि मलूकदास का वह भी सम्मान करता था। एक बार औरंगजेब ने उन्हें दरबार में भी बुलाया था। किंवदंती तो यह है कि बादशाह ने जो दो अहदी भेजे थे, उनके आने के पहले ही औरगजेब के पास पहुँच- कर मलूग्दास ने उसे आश्चर्य में डाल दिया था। कहते हैं कि मलूकदास ही के कहने से औरंगजेब ने कड़ा पर से जजिया उठा दिया था। फतहखाँ नामक औरंगजेब का एक कर्मचारी उनका बड़ा भक्त हो गया। और नौकरी छोड़कर उन्हीं के साथ रहने लगा। मलूकदास ने उसका नाम मीरमाधव रखा । दोनों गुरु-शिष्य जीवन में एक होकर रहे और मृत्यु भी वे एक हो रहे हैं। कड़ा में उन दोनों की समाधियाँ आमने-सामने खड़ी होकर उनके इस अनन्य प्रेम का साक्ष्य दे रही हैं। मालूम होता है कि मलूकदास ने कई ग्रंथों की रचना की है। लाला सीताराम ने इनके रत्नखान और ज्ञानबोध का उल्लेख किया है और विल्सन साहब ने साखी, विष्णुपद और दशरतन का। इनके स्थान पर इनका सबसे उतम ग्रंथ भक्तिवच्छावली माना जाता है। किंतु इनके ये ग्रन्थ हमारे लिए नाम ही नाम हैं। हमें तो इनकी उन्हीं कविताओं से सन्तोष करना पड़ा है जो लाला सीताराम जी के संग्रह में दी गई हैं अथवा जो वेल्वेडियर प्रेस ने मलूकदास की बानी के नाम से छापी हैं। इनकी रचनाओं में विचारों की पूर्ण उदारता तथा स्वतन्त्रता झल- कती है । गीता के लिए इनके हृदय में बड़ा भारी सम्मान था । रामनाम ।