पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१६७

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दूसरा अध्याय निवासी एक साधु थे। परन्तु जान पड़ता है कि चरनदास उन्हें श्रीमद्भागवत के प्रसिद्ध शुकदेव ही समझते थे, जिनको माता के गर्म में ही ज्ञान हो जाने की बात कही जाती है और जो अमर माने जाते हैं। जान पड़ता है कि इनके ज्ञान-चक्षु भागवत पुराण के ही अध्ययन से खुले थे। इस पुराण की समस्त कथा को शुकदेव जी ने राजा परीक्षित को पापों से मुक्त करने के उद्देश्य से कहा था । यदि भागवत का भली भाँति अध्ययन किया जाय तो पता लगेगा कि रहस्य-भावना से श्रोत- प्रोत होने के कारण वह संत साहित्य का सबसे महत्वशाली महाकाव्य है, जिसमें कथानक के बहाने प्रेम को प्रतीक बनाकर ज्ञान की शिक्षा दी गई है। चरनदासियों के लिये भागवत का नायक श्रीकृष्ण समस्त कारणों का कारण है। गीता के भावों को उन्होंने स्वच्छंदता से अपनाया है और स्थानस्थान पर साहस के साथ उससे उद्धरण भी दिए हैं-साहस इसलिये कहते हैं कि निर्गुणी संतों ने प्राचीन ग्रन्थों से अकारण घृणा प्रदर्शित की है; परन्तु चरनदासियों में प्रेमानुभूति की वह विशेषता भी है जिसके कारण हम उन्हें निर्गुण संत-संप्रदाय से अलग नहीं कर सकते । चरन- दास के ज्ञानस्वरोदय और बानी प्रकाश में आये हैं। ज्ञानस्वरोदय योग का ग्रन्थ है और बानी में संतमतानुकूज श्राध्यात्मिक जीवन के विभिन्न अंगों पर उपदेशात्मक विचार तथा स्वतंत्र उद्गार हैं । चरनदास को मृत्यु सं० १८३६ के लगभग दिल्ली में हुई जहाँ उनकी समाधि और मंदिर अब तक हैं। मंदिर में उनके चरणचिह्न बने हुए हैं । वसंतपंचमी को यहाँ एक मेला लगता है । चरनदास के बहुत शिष्य थे जिनमें से बावन शिष्यों ने अलग-अलग स्थानों पर चरनदास मा की शाखा स्थापित की जो आज भी वर्तमान हैं। चरनदास की सहजोबाई और दयाबाई नाम की दो शिष्याएं भी थीं जो स्वयं उसकी

  • संतवानी-संग्रह, भाग १, १४२ साखी ४, ५, ६।