१०० हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय नहीं हो जातो। इस विश्व में पूर्णरूप से व्याप्त होने पर भी वह पूर्ण रूप से उसके परे है । इस अद्भुत राज्य में गणित की गणना बे-काम हो जाती है । बृहदारण्यकोपनिषत् के शब्दों में अगर कहें तो कह सकते हैं कि पूर्ण में से अगर पूर्ण को निकाल लें तो भी पूर्ण ही शेष रहता है । इसी भाव को दृष्टि में रखकर दादू ने कहा था कि परमात्मा ने कोई ऐसा पात्र नहीं बनाया है जिसमें सारा समुद्र भर जाय और और पात्र खाली ही रह जाय- चिड़ी चोंच भर ले गई नीर निघट न जाइ। ऐसा वासण ना किया सब दरिया माहिं समाइ ॥+ यह व्याप्ति इतनी गहन है कि व्यापक और व्याप्त में कोई अंतर ही नहीं रह जाता । सिद्धान्तवादी कबीर की सहायता के लिए उसी के हृदय में से कवि बाहर निकलकर रसपूर्ण व्याप्ति को इस तरह संदेह के रूप में व्यक्त करता है- सुनु सखि पिउ महि जिउ बसै, जिउ महि बस कि पीउ ॥x पूर्ण सत्य तक तब पहुँच होती है जब यह संदेह निश्चय में परिणत हो जाता है और प्रिय हृदय में तथा हृदय प्रिय में बसा हुआ दिखाई देता है। कबीर ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि परमात्मा विश्व में और विश्व परमात्मा में अवस्थित है- खालिक खलक खलक में खालिक सब घट रह्या समाई परमात्मा की इसी व्यापकता के कारण उसे मन्दिर-मस्जिद श्रादि • पूर्णमदः पूर्ण मिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते । पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥-२, ५, १६ । + बानी (ज्ञानसागर ), पृ. ६३, ३२७ । x क० ग्रं॰, पृ० २६३, १८६ । = वही, पृ० १०४. ५१ ।
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