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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१८१

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तोसरा अध्याय १०१ में सीमित मान लेना मुर्वता हो जाती है। मुसलमानों के लिए खुदा मस्जिद में और हिंदुओं के लिए ईश्वर मन्दिर में है तो क्या जहाँ मंदिर- मस्जिद नहीं वहाँ परमात्मा नहीं ?- तुरक मसीत, देहुरै हिंदू, दुहुँठौं राम खुदाई । जहाँ मसी ति देहुरा नाही, तहँ काकी ठकुराई ॥ निर्गुणो को मन्दिर मस्जिद से कोई प्रयोजन नहीं । वह जहाँ देखता है, वहीं उसको परमात्मा के दर्शन हो जाते हैं । सर्वत्र परमात्मा ही परमात्मा है, सत्ता ही केवल उसकी है-- जहँ देखौं तहँ एक ही साहब का दीदार Ix नानक-- सब संत इस बात का उद्घोष करने में एकमत हैं। गुरु परसादी दुरमति खोई, जहँ देखा तहँ एको सोई। किंतु निर्गुणियों का सर्वत्र परमात्मा का ही दर्शन करना केवल उसके अधिदेवत्व तथा व्यापकत्व का सूचक नहीं है । उन्मेषशील जीव को इस बात का अनुभव होता है कि मेरी सता केवल भौतिक ४ २. पूर्ण-ब्रह्म नहीं। अपनी पारमात्मिकता की भी उसे बहुत धुंधली सी झलक मिल जाती है । अतएव उद्धार की श्राशा से वह ऐसे किसी दृढ़ अवलंबन की आवश्यकता का अनुभव करता है जो दूर से दूर होने पर भी निकट से निकट हो। परमात्मा के अधि- देवत्व और व्यापकत्व नाम रूप की उपाधियों से रहित उस परमतत्व को इसी पक्ष दृष्टि से देखने के परिणाम हैं। उसकी पूर्णता उन्हीं में नहीं; हाँ उनकी ओर वे अस्पष्ट संकेत अवश्य करते हैं। + वही, पृ० १०६, ५८ । x सं० बा० सं० १, पृ० ३३ । में 'ग्रन्थ', पृ० १६३, पासा । .