१०२ हिंदी काव्य में निगुण संप्रदाय पूर्णरूप में उस सत्तत्व का कोई उपयुक्त विचार ही नहीं कर सकता है। वह वांङ्मनस के परे हैं। बुद्धि मूर्त रूप का आधार चाहती है और वाणी रूपक का इसलिए उस अमूर्त और अनुपम को ग्रहण करने में बुद्धि, और व्यक्त करने में वाणी, असमर्थ है। बुद्धि से हमें उन्हीं पदार्थों का ज्ञान हो सकता है जो इंद्रियों के गोचर हैं, इंद्रियातीत का नहीं । इसी से नानक ने कहा था कि लाख सोचो, परमात्मा के बारे में सोचते बनता ही नहीं है। यही कारण है कि 'यह परमात्मा है' ऐसा कहकर उसका निर्देश नहीं किया जा सकता। ... इसी कठिनाई के कारण सब सत्यान्वेषकों को नकारात्मक प्रणाली का अनुसरण करना पड़ता है। 'परमात्मा यह है' न कहकर वे कहते हैं 'परमात्मा यह नहीं है' ‘स एष नेति नेति श्रात्मा' x कहकर उपनिषदों ने इसी प्रणाली का अनुगमन किया है हमारे परमात्म , पृ० १। 1 अविनाशी है। न उसके रूप है, न रंग है, न देह ।+ न वह बालक है न बूढ़ा न उसका .तोल है, न मोल है, न ज्ञान है; न वह हल्का है, न भारी, न उसकी परख हो सकती है । परन्तु इससे ॐ सोच सोच न होवई जे साचै लख बार ।--'थ', x'बृहदारण्यकोपनिषद्, ४, ४, २२ । + अवरण एक अबिनासी घट घट आप रहै । -क० ग्र०, पृ० १०२, ४२ । रूप वरण वाके कुछ नाही सहजो रंग न देह । -सहजो, सं० बा० सं०, पृ० १६ । = ना हम बार बूढ़ हम नाहीं, ना हमरे चिलकाई हो । -क० ग्रं॰, पृ. १०४, ५० । तोल न मोल, माप किछु नाहीं गिनै ज्ञान न होई । ना सो भारी ना सो हलुआ, ताकी पारिख लखै न कोई। -वही, पृ०.१४४, १६६ ।
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