पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१८३

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. दूसरा अध्याय १०३ परिणाम क्या निकलता है ? परमात्मा के वास्तविक ज्ञान को प्राप्त करने में हम कहाँ तक सफल होते हैं ? कबीर ने कहा था, चारों वेद (नेति नेति कहकर ) सब वस्तुओं को पीछे छोड़ते हुए आपका यशोगान करते हैं परंतु उससे वास्तविक लाभ कुछ होता नहीं दीखता, भटकता हुअा जीव लूटा अवश्य जाता है। क्योंकि जैसा नानक कहते हैं, परमात्मा के सम्बन्ध में कितना ही कह डालिये, फिर भी बहुत कहने को रह जाता है। इसी से कबीर ने अँझलाकर कहा कि 'परमात्मा कुछ है भी या नहीं ?' : सुन्दरदास ने तो उसे 'अत्यंताभाव' कह दिया–हाँ, नास्तिकों के मतानुकूल अत्यंताभाव नहीं। परमात्मा है भी और नहीं भी है। जिस अर्थ में संसार के भौतिक पदार्थ हैं' उस अर्थ में परमात्मा 'है' नहीं और जिस अर्थ में परमात्मा है' उस अर्थ में सांसारिक पदार्थ नहीं हैं। इसीलिए सुन्दरदास कहते हैं कि परमात्मा है भी और नहीं भी है। बल्कि उसको 'है' और 'नहीं' इन दोनों के बीच देखना चाहिए। सारो समस्या को हल करने के उद्देश्य से सहजोबाई के शब्दों मैं निर्गणी उसे 'है' और 'नहीं' भाव और प्रभाव दोनों से रहित + रावर को पिछवार के गावै चारिउ सैन । जीव परा बहु लूट मैं ना कछु लेन न दैन ।, -'बीजक', पृ० ४८८ । x बहुता कहिये बहुता होई।–'जपजी', २२ ।

तहाँ किछ पाहि कि सुन्यं ।-क० ग्रं० पृ० १४३, १६४ ।

ॐ यह अत्यंताभाव है, यहई तुरियातीत । यह अनुभव साक्षात है, यह निश्चै अद्वैत ॥ | "नाहीं नाहीं" कर कहै "है है" कहै बखानि । “नाहीं" "है" के मध्य है, सो अनुभव करि जानि ।। ज्ञान-समुद्र, ४४॥