१०४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय उद्घोषित करते हैं । जैसे हम एक अर्थ में परमात्मा को 'है' नहीं कह सकते वैसे ही 'नहीं' भी नहीं कह सकते, क्योंकि अन्य सभी पदार्थों का तो वही आधार है। परन्तु यह भी एक प्रकार का अभाव ही है अतएव यह उन्हें एक स्वयं विरोधी स्थिति में पहुँचा देता है। इसी स्थिति के कारण प्राचीन ऋषि भाव ने परमात्मा के वर्णन में एक नवीन प्रणाली का अनुसरण किया था। वास्कलि ने भाव से पूछा था कि आत्मा क्या है। पहली बार प्रश्न करने पर जब उत्तर न मिला तो वास्कलि ने समझा कि शायद ऋषि ने सुना या समझा नहीं। फिर पूछने पर भी जब उन्होंने तीव्र दृष्टि से वास्कलि की ओर केवल देखा भर तो उसे भय हुआ कि कहीं अनजान में मैंने ऋषि को अप्रसन्न तो नहीं कर दिया । इसलिए उसने बड़ी विनय के साथ प्रश्न को दुहराया। इस बार ऋषि ने झै झलाकर उत्तर दिया-"मैं बताता तो हूँ कि प्रात्मा मौन है, तुममें समझ भी हो !+ और बात भी ठीक ही है। परमात्मा को निर्विशेष कहने पर भी उस पर विशेषणों का आरोप करना-चाहे वह विशेषण 'निर्विशेष' ही क्यों न हो-असंगत है। निर्गुणियों को भी इस बात का अनुभव हुआ था। ब्रह्म के वर्णन में वाणी की व्यर्थता की घोषणा करके कबीर ने भाव ऋषि का साथ दिया। उन्होंने कहा--भाई बोलने की बात क्या कहते हो? बोलने से तो तत्व ही नष्ट हो जाता है। x"है" "नाही" सू रहित है, 'सहजो' यों भगवंत । --सं० बा० सं०, भाग १, पृ० १६५ । + 'ब्रह्मसूत्र', शांकर भाष्य, ३, २, १७; दास गुप्त-हिस्टरी आव इंडियन फिलासफी, भाग १, पृ० ४५ । = बोलना का कहिए रे भाई। बोलत बोलत तत्त नसाई । -० ग्र०, पृ०.१०६, ६७ ।
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