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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१८५

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तोसरा अध्याय परन्तु जैसा नानक कहते हैं, जो लोग परमात्मा में एकतान भावना से लीन हो जाते हैं, वे चुप भी तो नहीं रह सकते। परमात्मा के यशोगान की भूख इंद्रियार्थों से थोड़े ही बुझ सकती है। अतएव वाणी का आधार लेना ही पड़ता है। बोलने से अधूरा सही, भगवद्विचार का प्रारम्भ तो हो जाता है। बिना बोले वह भी नहीं हो सकता ।+ इसीलिए नानक ने कहा-"जब लगि दुनिया रहिये नानक, किछु सुणिये किछु कहिये ।"= परमात्मा यद्यपि 'नयन' और 'वयन' के अगोचर है फिर भी वह संतों के 'कानों' और 'कामों' का सार है। भगवचर्चा में सम्मिलित होना उनके जीवन का प्रधान सुख है। परमात्मा के गुणगान ही में वे जिलों की सार्थकता मानते हैं । बोलने की इसी आवश्यकता के कारण कबोर ने परमात्मा को 'बोल' और 'अबोल' के बीच बताया है। ४ चुप चुपि न होवई लाइ रहा लिवतार । भुखिया भूख न ऊतरी जेवना पुरिया भार ।।-'जपजी', २ । + बिन बाले क्यों होय बिचारा । क० ग्र०, १०६, ६७ । 'ग्रन्थ', पृ० ३५६ । ® कहत सुनत सुख ऊपजै अरु परमारथ होय । नैना बैन अगोचरी स्रवणा करणी सार । बोलन के सुख कारणे कहिये सिरजनहार ॥ -वहीं, पृ० २३६ ।

जहाँ बोल तहँ पाखर आवा । जहँ अबोल तहँ मन न रहावा।

बोल अबोल मध्य है सोई । जस अोहु है तस लखै न कोई ।। -वही पृ० ५१०। बीजक में अंतिम पद्य का कुछ भिन्न पाठ है- जहाँ बोल तहँ अक्षर आवा । जहँ अक्षर तहँ मन हि दिढ़ाया ।। बोल-अबोल एक ढ़ जाई । जिन यह लखा सो बिरला होई ।। -'बीजक', साखी, २०४॥ अबोल ही जब बोल हो जाता है तब अक्षर ब्रह्म के दर्शन होते हैं ।