सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/१९१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

परमात्मा तोसरा अध्याय १११ से छठा अंड फूटा तो उसमें से त्रैलोक्य का कर्ता निरंजन अपनी शक्ति ज्योति अथवा माया के साथ निकल पड़ा । 'परन्तु इन नये-नये बाह्यार्थवादी लोकों तथा उनके धनियों की कल्पना का क्रम यहीं पर न रुका, क्योंकि नाम तो शब्द मात्र हैं और परमात्मा की ओर संकेत मात्र कर सकते हैं। इन संकेतों को छोड़कर यदि उनका बाह्यार्थ लिया जाय तो उनका कोई भी पारमार्थिक मूल्य नहीं रह जाता। इस प्रकार हम परमात्मा को चाहे जिस नाम से पुकारें, वह उससे परे ही रहेगा; इसीलिए दर्शनशास्त्रों में उसे 'परात्पर' कहा है को परे से परे ले जा रखने की इस प्रवृत्ति के कारण-आगे चलकर पर- मात्मा 'सत्य पुरुष' से भी परे चला गया । परिणामतः परमात्मा, जिसे कबीरपंथियों ने अनामी और शिवदयालजो ने राधास्वामी नाम से अभिहित किया, सत्य पुरुष से भी तीन लोक और ऊपर जा बैठा । बीच के पुरुषों का नाम अगम और अलख रखा गया || शिवदयालजी ने अनामी शब्द को राधास्वामी का विशेषण माना था परन्तु राधास्वामी संप्रदाय के अनुयायियों ने अनामी को एक अलग पुरुष मानकर राधा- ४ प्रथम सुरति समरथ, कियो घट मे सहज उचार । ताते जामन दीनिया, सात करी विस्तार ॥... तब समरथ के श्रवण ते मूल सुरति भै सार । शब्द कला ताते भई, पाँचब्रह्म अनुहार ।। पाँचा पाँचौं अंड धरि, एक एक मह कीन्ह ।... ते अचित्य के प्रेम तें उपजे अक्ष र सार ।... जब अक्षर के नींद गै, दबी सुरति निरबान । श्याम बरन इक अंड है, सो जल मे उतरान ॥... अक्षर दृष्टि से फूटिया, दस द्वारे कढ़ि बाप ॥ तेहि ते जोति निरंजनी, प्रकटे रूपनिधान । -क० श०, पृ..६५-६६ ।