तीसरा अध्याय १२१ • सुरत ( जोवारमा ) और राधास्वामी (परमात्मा) मूल-स्वरूप में अवश्य एक हैं परन्तु विस्तार अथवा महत्ता में नहीं। सुरत भी प्रेम स्वरूप है, परन्तु राधास्वामी तो प्रेम का भांडार ही है। अगर सुरत जल की बूंद है तो परमात्मा समुद्र । जिस प्रकार सागर की एक बार में सागर के सब गुण विद्यमान रहते हैं उसी प्रकार जीवात्मा में भी परमात्मा के सब गुण विद्यमान है, परन्तु कम मात्रा में। शाहजादा दाराशिकोह के प्रश्नों के उत्तर में बाबालाल ने भी इस सम्बन्ध में अपना मत बहुत स्पष्टता के साथ प्रकट किया है। द्वारा- शिकोह ने पूछा--"क्या जीवात्मा, प्राण और देह सब छाया मात्र है ?" बाबालाल ने उत्तर दिया--"जीवात्मा और परमात्मा मूल-स्वरूप में एक समान हैं, और जीवात्मा उसका एक अंश है। उनके बीच वही सम्बन्ध है जो खुद औ सिंधु में । जब बुंद सिंधु में मिल जाता है तो वह भी सिंधु ही हो जाता है।" इससे भी जब वाराशिकोह का परा समाधान म हुआ तो उसने फिर पूछा--"तो फिर जीवात्मा और परमात्मा में भेद क्या है ?" इसके उत्तर में बाबालाल ने कहा-"उनमें कोई भेद नहीं है। जीवात्मा को हर्ष-विषाद की अनुभूति इसलिए होती है कि वह पांचभौतिक शरीर के बंधन में पड़ा है। परन्तु गंगाजल हमेशा गंगाजल रहेगा चाहे वह नदी में बहता हो अथवा घड़े में भरा हो । इस प्रकार बालामाल ने भी अंशांशि भाष को ही अपनाया था। परन्तु नानक का इस सम्बन्ध में क्या सत है, यह साफ-साफ नहीं ज्ञात होता । आत्मा और परमात्मा को एक कर दुविधा के निवारण का उपदेश उन्होंने भी दिया है- . + वह भंडार प्रेम का भारी जाका मादि न अंत देखात । -'सारवचन', भाग १, पृ० २२७ । विल्सन-'हिंदू रिलिजस सेक्ट्स्', पृ० ३५० ।
पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२०१
दिखावट