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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२०२

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१२२ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय आतमा द्रवै रहै लिव लाई ।... प्रातमा परमातमा एको करै । अंतरि की दुविधा अंतरि मरै ।। इसके साथ-साथ जब हम इस बात पर ध्यान देते हैं कि मुक्ति को सिख संप्रदायवाले निर्वाण' मानते हैं तब यह स्पष्ट हो जाता है कि अन्त में आत्मा और परमात्मा अभेद रूप से एक हो जाते हैं ; किन्तु यह विदित नहीं होता कि जब तक यह दुविधा 'मरती' नहीं तब तक भी आत्मा और परमात्मा में पूर्णाद्वैत भाव रहता है या नहीं। हाँ, उनकी सामान्य उक्तियों को तथा उनके भक्ति-भाव को देखने से यही समझ पड़ता है कि वे भी जीवात्मा और परमात्मा में, जब तक जीवात्मा है, अंशांशि सम्बन्ध ही मानते हैं। जड़ सृष्टि के सम्बन्ध में उनकी सम्मति भी, जिसका आगे चलकर उल्लेख होगा इसी बात को पुष्ट करती है। परन्तु शिवदयाल और वाबालाल के मतों का जो उल्लेख ऊपर किया गया है, उससे स्पष्ट है कि अंशांशि भाववालों में भी साहमत्य नहीं है। बाबालाल और नानक तो अंश का अर्थ वस्तुतः अंश लेते हैं । हाँ, इतनी विशिष्टता उस अंश में अवश्य होती है कि अंश में भी अंशी के सब गुण वर्तमान रहते हैं, यद्यपि कुछ परिमाण में। किन्तुः शिवदयान और प्रायः अन्य सब संत, जो न तो अद्वैत धारा के अन्तर्गत आते हैं और न बाबालाल तथा नानक के अनुयायी हैं, अंश का अर्थ वस्तुतः अंश नहीं लेते, बल्कि अंश तुल्य । उनके लिए अंशांशि भाव केवल एक अनुपात की ओर संकेत करता । परमात्मा के सामने जीव वैसा ही है जैसा समुद्र के सामने बूंद । जीवात्मा, परमात्मा के एक लघु से लघु अंश के बराबर है। जीवात्मा के सम्मुख परमात्मा कितना बड़ा है, इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वह जीव का स्वामी और भाग्य- विधाता है। जीव, परमात्मा न होकर परमात्मा का है। 1 + 'नथ', पृ० ३५७ ।