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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२०३

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तीसरा अध्याय १२३ इन दोनों मतों में जो भेद है वह उनके मुक्ति-सम्बन्धी विचारों से और भी स्पष्ट हो जाता है. नानक और बाबालाल के अनुसार मोक्ष होने पर जीवात्मा परमात्मा में इस प्रकार घुल-मिल जाता है कि जीवात्मा की कोई अलग सत्ता ही नहीं रह जाती। दोनों में जरा भी भेद नहीं रहने पाता। परन्तु · शिवदयाल का दृष्टिकोण इससे बिलकुल भिन्न है। उनके मतानुसार मुक्ति होने पर सुरत (जीवात्मा) की अलग सत्ता बिलकुल नष्ट नहीं हो जाती, हाँ राधास्वामी (परमात्मा) के चरणों में उसे अनन्त चिन्मय जीवन अवश्य प्राप्त हो जाता है। वे भी सुरत की उपमा बूंद से और राधास्वामी की सागर से देते हैं और इस तरह मोक्ष की प्राप्ति पर सिंधु और बूंद का मिलन मानते हैं । परन्तु बूंद सिंधु में समाकर उसके साथ अभेद रूप से एक नहीं हो जाती। 'समाना' के स्थान पर उनके ग्रन्थों में धंसना' क्रिया का भी प्रयोग हुआ है । धंसने का तात्पर्य है किसी वस्तु में प्रविष्ट होकर उसमें अपने लिए स्थान कर लेना। शिवदयालजी का मत यह मालूम होता है कि सागर में जलराशि का वह परिमाण जो भाप होकर कभी नहीं उड़ता राधास्वामी है और जो बूंदें प्रतिपल उसमें उड़ती तथा उसमें से मिलती रहती हैं, वे सुरत हैं। ये बूंदें देखने में तो उस मूल जलराशि में मिल गई हैं, परन्तु फिर भी हम देख पावें चाहे न देख पावें, हैं तो वे वहाँ ही। मुक्त सुरत राधास्वामी के साथ सायुज्य-सुख भोगा करते हैं और अनन्त काल तक उनकी शरण में विश्राम पाते हैं । धरनी ने भी निम्नांकित रूपक में यही बात कही है- 'छुटी मजूरी, भये हजूरी, साहिब के मनमाना।" (हजूरी-हुजूर में रहनेवाला, दरबारी) प्रेम पहेली और तारतम्य के जो अवतरण नागरी प्रचारिणी सभा की दिल्ली की खोज (अप्रकाशित) में दिये हुए हैं, उनको

  • 'बानी', पृ० १४॥