तीसरा अध्याय.. १२५ . जिस प्रकार समुद्र में की कुछ बूंदों के भाप बनकर उसमें से उड़ जाने से या कुछ और बूंदों के उसमें गिरकर मिल जाने से कुछ अंतर नहीं पाता उसी प्रकार परमात्मा में भी जीवात्माओं के वियुक्त अथवा संयुक्त होने से कोई अंतर नहीं आता। दो वस्तुएँ केवनावस्था में एक होकर हो एक नहीं कहलाती, एक समान होने से तथा एक में मिल जाने से भी एक कहलाती हैं। अब प्रश्न यह उठता है कि उस ऐक्यावस्था से चाहे वह किसी प्रकार का ऐक्य हो, आत्मा और परमात्मा वियुक्त कैसे होते हैं ? शिवदयाल ने इस प्रश्न पर प्रकाश डालने के लिए सुरत और राधास्वामी के बीच एक संवाद कराया है। सुरत को इसका कारण समझाते हुए राधास्वामी कहते हैं। "सुनो सुरत तुम अपना भेद । तुम हम थे थीं सदा अभेद ।। काल करी हम सेवा भारी । सेवा बस होय कुछ न विचारी ।। तुमको मांगा हमसे उसने । सौंप दिया तुम्हें सेवा बस में । सुरत-"सेवा बस तुम काल को, सौंप दिया जब मोहिं । तो अब कोन भरोस है, फिर भी ऐसा होय !" राधास्वामी-"जान बूझ हम लीला ठानी। मौज हमारी हुइ सुन बानी ॥ काल रचा हम समझ बूझ के । बिना काल नहिं खौफ जीव के ।। कदर पाल नहिं बिना काल के । मौज उठी तब प्रस दयाल के। दिया निकाल काल को ह्या से । दखल काल प्रब कभी न हाँ से ।। काल न पहुँचे उसी लोक में । मब न' करूं ऐसी मौज मैं । एक बार यह मौज जरूर । अब मतलब नहीं डाली दूर।। तू शंका मत कर अब चित में । चलो देश हमरे रहो सुख में 10 इसके अनुसार अपनी 'मौज' अथवा जीनामयी स्वतंत्र इच्छा के ,
- सारवचन, भाग १,७७-६२ ।