पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२०७

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तीसरा अध्याय १२७ जगत् के रूप में दिखाई देता है। परन्तु जो कुछ दिखाई देता है वह वस्तुतः सत्य नहीं, वह अज्ञान और भ्रम के कारण दिखाई देता है और सर्वथा मिथ्या है। सृष्टि सौंदर्य को देखकर कबीर के मन में जो विचारधारा उठती है वह इस बात को पूर्ण रूप से पुष्ट करती है- कहौ भाई अंबर काँसू लागा। कोइ जाणगा जानन हारा । अंबरि दीसै केता तारा। कौन चतुर ऐसा चितरन हारा । जो तुम देखो सो यहु नाहीं । है यह पद अगम अगोचर माही। तारों से जगमगाता हुआ सुन्दर नीलाकाश जो विधाता रूप चतुर चितेरे के निर्माण-कौशल का प्रमाण है, वह जैसा दिखाई देता है कबीर के लिए वैसा नहीं है, वह भी गम्य और गोचर होने पर भी अगम अगोचर के अंतर्गत है । दादू ने भी निम्मलिखित पंक्तियों में यही बात कही है- मन रे तू देखै सो नाहीं । है सो अगम अगोचर माहीं । निसि अंधियारी कछू न सूझ, संसै सरप दिखावा । ऐसे अंध जगत नहिं जाने, जीव. जेवड़ी खावा ॥x इसी प्रकार सुन्दरदास भी कहते हैं- मृत्तिका समाइ रही भाजन के रूप. माहिं मृत्तिका को नाम मिटि भाजन ही गह्यौ है । सुन्दर कहत यह योंही करि जानौ ब्रह्म ही जगत होय ब्रह्म दूरि रह्यौ है ।।3 ब्रह्म ही के मायाविष्ट जनों की आँखों में. जगत् का रूप धारण करने से ब्रह्म उनकी आँखों से छिप रहा है। . 8 क. ग्रं॰, पृ० १३३, ४१ । ४ सं० बा० सं०, पृ२, पृ० १०० । = सुन्दर बिलास, अंग ३४, ४ । .