4 the - १२८ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय इस प्रकार जगत् विशिष्ट अर्थ में सत्य और मिथ्या दोनों है । जिसे मूल तत्व पर नाशवान् नाम और रूप का अध्यारोप होने से जगत् दिखाई देता है, उसके सत्य होने के कारण जगत् सत्य है, परन्तु उस मूल तत्व के वास्तविक स्वरूप के ज्ञान में विक्षेत्र डालने के कारण यह हरय जगत् झूठ एक दूसरे अर्थ में भी जगत् सत्य है। जब तक हम अन्सान के आवरण को हटा नहीं पाते हैं तब तक जगत् हमारे लिए वास्तविक है जगत् के बन्धन में पड़ा हुआ व्यक्ति जगत् को मिथ्या कहे, यह फबता नहीं, ग्यवहार में वह सत्य ही है। इस व्यावहारिक सत्यता को समझाने के लिए अवौतियों ने माया के सिद्धांत को स्वीकार किया है। परन्तु साथ ही अबैत सिद्धांत को त के मन से बचाये रखने के लिए माया के अस्तित्व को उन्होंने सिद्धांत रूप से अस्वीकार कर दिया है। इसी लिए माया को कबीर ने ये वियाही गाय का दूध, खरगोश के सींग का नाद और बंध्या के पुत्र का रमवा बसलाया है।- प्रागणि बेलि प्रकासि फल, परणब्यावर का दूध । 'ससा सोंग की धुनहड़ी, रमै बाँझ का पूत ॥ परन्तु व्यावहारिक क्षेत्र में माया का निरसन है बड़ा कठिन काम । परमार्थतः उसके सत्य न होने पर भी ग्यवहारत: जीव को बह ऐसे जकड़े रहती है कि उससे मुक्त होना दुष्कर है। देखने में ऐसा लग सकता है कि माया मर गई है, किंतु यह सूक्ष्म रूप धारण किये हुए अपना अवसर देखती रहती है और जब उसके प्रकट होने की प्राशा नहीं रहती है उस समय प्रकट हो जाती है- अब तो ऐसी है पड़ी ना तुंबड़ी न बेलि । जालण पाणी लाकड़ी ऊठी कूपल मेल्हि ।। -50 क. ग्रं॰, पृ० १६, ४। ० म.पू.
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