१३४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय में। पारमार्थिक दृष्टि में उनके लिए उनका अस्तित्व ही नहीं है। परंतु दार्शनिक दृष्टि से फिर भी उनका कम महत्व नहीं है। वस्तुतः वे ही इस सागर से पार होने के लिए उस नौका का काम देते हैं, जिसको राम खेते हैं- नाद व्यंद की नावरी राम नाम कनिहार । कहै कबीर गुण गाइलै गुर गमि उतरै पार ।।3 अपनी भूमिका विशेष में और भूमिकाओं का अन्यत्र वर्णन करेंगे-समस्त सृष्टि प्रणव का शरीर है और प्रणव, समस्त सृष्टि का आत्मा। न इस आत्मा के बिना माया का ही अस्तित्व रह सकता है और न माया के बिना अव्यक्त व्यक्त ही हो सकता है। इस भूमिका में प्रणव, सृष्टि का कर्ता तथा उपादान दोनों एक साथ है, परन्तु यह बात प्रणव ही तक के संबंध में कहीं जा सकती है। इससे आगे बढ़कर अगर हम यह सोचने लगें कि परमार्थतः परमात्मा जगत् का कर्ता है तो यह द्वैत भावना के आगे सिर झुकाने के अतिरिक्त और क्या कहा जा सकता है, जो कबीर प्रादिकों को अभीष्ट नहीं। उनके मतानुसार तो मनुष्य कुछ करता धरता हो नहीं है । यह तो केवल कहने-सुनने की बातें हैं कि परमात्मा ने जगत् की रचना की है। स्वयं कबीर के शब्दों में- कहन सुनन को जिहि जग कीन्हा । जग भुलान सो किनहुन चीन्हा ।। ते तो आहि निरंजना आदि अनादि न आन । कहन सुनन को कीन्ह जग आपै अाप भुलान II+ अतएव परमात्मा का विवर्त रूप में नीचे उतरना ही दृश्य जगत् का = क. ग्रं॰, पृ. ६४, १८ ।
- क० ग्रं०, पृ० २२५ ।
+ वही, पृ० २२७ ।