पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२१५

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तीसरा अध्याय १३५ ॐ अथवा कारण है । जैसा हम देख चुके हैं, ब्रह्म का प्रथम विवर्त प्रणव, शब्द ब्रह्म है। यहाँ से और नीचे उतरकर पंच तत्व मन, चित्त, अहंकार, के द्वारा हम' शरीर और जड़ जगत् तक पहुँचते हैं। दादूदयाल के शब्दों में- पहली कीया आप थें उत्पत्ती ॐ कार । कार थें उपजे पंच तत्त आकार ।। पंच तत्त थै घट भया, बहु बिध सब विस्तार । घट तैं ऊपजे, मैं तें बरण विचार || x कबोर ने भी कुछ ऐसा ही कहा है- ॐ कारे जग ऊपजे बीकारे जग जाय । एक बिनानी रच्या विनान, अयान जो आपै जान । सत रज तम 3 कीन्ही माया; चारि खानि विस्तार उपाया । पंच तत्त ले कीन बँधान; पाप पुन्नि मान अभिमान । अहंकार कीने माया मोहू; संपति विपति दीनि सब कोहू ॥ जहाँ तक मुझे पता है, इन संतों ने बहुधा यह बताने की चेष्टा नहीं की है कि तत्वों की उत्पत्ति किस क्रम से हुई है। परन्तु गुलाल जी ने मुद्राओं का वर्णन करते हुए भीखा जी से पंचतत्वों की उत्पत्ति का बड़ा रोचक वर्णन किया है। उन्होंने कहा, जब परमात्मा ने सृष्टि रचने की इच्छा की तो बिना मिट्टी के काम चलता न देखकर मिट्टी (पृथ्वी) उत्पन्न की । लेकिन मिट्टी के गीले न होने से उसे रूपाकार में ढाला नहीं जा सकता था इसलिए कर्ता ने जल की इच्छा की। अधिक जन मिल जाने से मिट्टी ढीली हो गई जिससे वह किसी एक रूप में ठहर x सं० बा० सं०, १, पृ० ७७, ७८ । क० ग्रं॰, पृ० १२६, १२७ । वही, पृ० २२६ । - 1