परंतु दादू १३६ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय न सकी, इसलिए उसको स्थिर करने के लिए गरमी ( तेज) की जरूरत हुई जिससे अग्नि पैदा की गई। किन्तु अग्नि प्रज्ज्वलित न होती थी, इसलिए वायु की आवश्यकता हुई। परंतु प्रचंड वायु भी थमी नहीं इसलिए आकाश का निर्माण हुआ जिसमें शब्द और पवन दोनों घुल- मिल गये हैं (आँखों से श्राकाश और वायु की अलग-अलग पहचान नहीं हो सकती।) आकाश में पाँचों तत्वों का निवास है। के वचन, रचना में किसी भी क्रम को मानने के विरोधी जान पड़ते हैं। उनके अनुसार परमात्मा इतना असमर्थ नहीं है कि उसे एक-एक करके तत्वों की सृष्टि करनी पड़ी हो। उसके शब्द से सारी सृष्टि एकदम उत्पन्न हो गई।
- करता सृष्टि करन जब लागो । तब माटी बिनु काम न जागो॥
इच्छा माटी तेहि छिन आई । मूल पुहुमि मुद्रा समुझाई ।। माटी झूरि पिंड नहिं बनई । कियो अकर्षण ते हित भई ? ।। जल अधिकार माटि मिहि लाई । दूजे अपि मुद्रा कहवाई ॥ माटी ढील पिंड नहिं बने । हरि को मौज तेज तब गर्ने ।। तेज प्रवेश पिंड बनि आयो । तीजे मुद्रा तेज कहानो । अग्नि प्रज्ज्वलित होय नहिं ऐसे । मन बुझि उठो पवन तब तैसे ।। भयो प्रकाश पवन सँग लहियो । चौथे वायु मुद्रा सो कहियो । वायु अपर्बल थामि न जाई। मौजे मौजि अकाश बनाई ।। शब्द पवन तहँ मिश्रित भयऊ । पँचये अकाश मुद्रा सो लयऊ । पाँचौं बसैं अकाशे माहीं। भिन्न-भिन्न स्थान के माहीं । भीखा मुद्रा यहि बिधि भयऊ । धारन तेहि जिन प्रागे लयऊ ॥ -म० बा० पृ० १६२ । एक सबद सब कुछ किया, ऐसा समरथ सोइ । प्रागै पीछे तौ करे जे वतहीणा होइ । -बानी, १ म पृ०, १६८, १० ।