पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२१७

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तीसरा अध्याय १३७ इस प्रकार ब्रह्म से प्रणव, प्रणव से महत्तत्व, वहाँ से मन, अहंकार आदि विवर्त होते जाते हैं। प्रत्येक नीचे भूमिका पर उतरने पर नये बंधन जकड़ते चलते हैं और माया के प्रावरणों की तह मोटी होती चली जाती है; यहाँ तक कि अंत में मूल वस्तु ही हमारी दृष्टि से ओझल हो जाती है। माया के इस स्थूल आवरण को भेद कर वहाँ तक पहुँचने में हमारी दृष्टि असमर्थ हो जाती है। परंतु मूलतत्व तो उसके अंदर रहता ही हैं। हमारी वास्तविकता अभी भी नष्ट नहीं हुई है। अगर कहें तो कबीर के शब्दों में कह सकते हैं, 'श्रापै श्राप । हम अपने भुलावे में श्राप ही पड़ गये हैं। इस प्रकार एक तरह से यह जगत् हमारी ही इच्छा का फल है, अपनी ही इस लीला को भूलकर अब हम इस भ्रम में पड़े हुए हैं। उस प्रारंभिक क्रीडापूर्ण इच्छा ने अब मन का रूप धारण कर लिया है। इसी से कह सकते हैं कि यह जगत् हमारे ही मन की परछाई है। इसीलिए कबीर ने कहा था-- जिहि जैसी मनसा तिहि तैसा भावा । ताकू तैसा कीन उपावा 18 सुंदरदास भी कहते हैं -सुंदर यह सफल दीसै मन ही मैं भ्रम, मन ही के भ्रम गये ब्रह्म होई जात हैं ।+ हम अपनी आँखों पर रंगोन चश्मा चढ़ाये हुए हैं जिससे मूल वस्तु का. यथातथ्य रूप दृष्टिगत नहीं होता, बल्कि उसका अवास्तविक रँगा हुआ चित्र हमारे सामने खड़ा हो जाता है जिसे हम भूल से सच समझने लगते हैं। ये रंगे हुए प्रावरण सब झूठे हैं जैसा दादू ने कहा है ॐकार भी सत्य परमतत्त्व नहीं है।- आदि सबद प्रोंकार है, बोलै सब घट माहिं । दादू माया बिस्तरी, परम तत्तु यह नाहिं ।। क० ग्रं०, पृ० २२७। + सुन्दर विलास, अंग ११, २५ । = बानी, प्र०, प० २००, १२ । .