तीसरा अध्याय 'तब रहे आप अनाम अमाया । अपने में रहे आप समाया ॥' माया का शुद्ध रूप निष्क्रिय होता है परंतु फिर जब मौज की लहर उठती है तो माया प्रबल रूप धारण करने लगती है और उससे नाना प्रकार की सृष्टि का निर्माण होता है। परन्तु राधास्वामी स्वयं सृष्टि का निर्माण नहीं करते । उनकी खाली मौज ही होती है। सृष्टि-निर्माण का वास्तविक कार्य तो उनकी मौज होने पर निरंजन करता है जो निस्सीम शक्ति के धाम, दयाल देश से बहुत नीचे है । अथवा यह पहले बताया जा चुका है कि निरंजन के ऊपर बहुत से धनी हैं जिनके नाम क्रमशः नीचे से ऊपर को हैं--ब्रह्म, परब्रह्म, सोहंग ( सोहम् ) पुरुष, सत्य पुरुष, अलख पुरुष, अंगम पुरुष, (अनामी पुरुष ) और राधास्वामी। इन विभिन्न धनियों के लोकों की भावना अत्यंत रोचक है। राधास्वामी धाम से लेकर अलख लोक तक माया का निवास नहीं है। सत्यलोक में शुद्ध रूप में माया का निवास है, वहाँ से क्रमशः बढ़ते-बढ़ते वह निरंजन लोक में पहुँच कर अत्यंत स्थूल हो जाती है। नीचे के लोकों का विस्तार क्रमशः घटता जाता है और उनमें स्थूलता बढ़ती जाती है नीचे के लोक अपने अस्तित्व के लिए ऊपर के लोकों पर अवलंबित हैं। यद्यपि अपनी मात्रा की स्थूलता पर उसी लोक के धनी का स्वाधीन शासन है फिर भी सूक्ष्म शासन में ऊपर के लोकों का भी हाथ है। नीचे के लोक क्रमश: ऊपर के लोकों के घेरे में हैं, क्योंकि बिना सूक्ष्म चेतन तत्व के माया भी नहीं रह सकती । हुजूर साहब शालिग्राम जी ने अपनी अँगरेजी पुस्तक राधास्वामी मत प्रकाश के अंतिम आवरण पृष्ठ पर इस भाव को एक चित्र (diagram) के द्वारा प्रदर्शित किया है। एक बड़ा सा वृत्त खींचो उसके भीतर क्रमशः छोटे और कई वृत्त इस तरह से खींचो कि उनके केन्द्र एक ही व्यासार्द्ध में पढ़ें और भीतर के सब वृत्तों की । - ॐ सार वचन, पृ० २२२।
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