१४४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय परिधियाँ बाहर के वृत्त की परिधि को एक ही स्थान पर छुवें। सबसे बड़े वृत्त के बाहर दयाल देश (राधास्वामी धाम) है और भीतर के वृत्त क्रमशः नीचे के लोकों की सीमा हैं। जो भाव नादबिंदु-युक्त शब्द ब्रह्म में अथवा यूनानी 'लोगोस' में है उसी का विस्तार निरंजन से लेकर सत्य पुरुष तक हुआ है और पूर्ण ब्रह्म-भावना का विस्तार उनसे ऊपर के तीन-चार धनियों के रूप में। इस विस्तार का कारण शिवदयाल जी की अत्यंत 'पर' प्रवृत्ति है जिसका वर्णन 'परात्पर' नामक स्तंभ में पहले किया जा चुका ह यदि इस पर प्रवृत्ति की ओर ध्यान न दे तो यह कबीर आदि अवतियों के सूक्ष्म विवर्तवाद का स्थूलरूप मात्र जान पड़ेगा। तुलसी साहब के अनुसार भी जीव तो पुरुष का अंश है, किन्तु स्थूल मायिक जगत् की सृष्टि निराकार निरंजन करता है। बाबालाल भी इस बात में शिवदयाल जी से सहमत जान पड़ते हैं कि कर्ता और प्रकृति माया में अंतर है और दोनों नित्य हैं । प्रकृति और सृष्टि-पदार्थों में क्या अंतर है ? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने दारा- शिकोह से कहा था “कुछ तो बीज और वृक्ष से उनकी तुलना करते हैं। बीज और वृक्ष के सारतः एक होने पर भी उनकी एक सी सत्ता नहीं है। समुद्र और तरंग से भी उनकी तुलना की जा सकती है। समुद्र के बिना तरंग नहीं उठ सकती, परन्तु तरंग के बिना भी समुद्र रह सकता है. तरङ्गों के उठने के लिए वायु का झोका आवश्यक है। इसी प्रकार प्रकृति और सृष्टि भी सारतः एक हैं । फिर भी प्रकृति से सृष्टि का विकास, बिना किसी कारण के, बिना कर्ता के हस्तक्षेप ? । x जीव तो अंस पुरुष से आया । निराकार रचि कीन्हीं काया ॥ जोति सरूप तेज उपजाया । यों जग माहिं प्रगट भइ माया ॥ -"रत्नसागर", पृ० १५८ ।
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