पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२२५

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तोसरा अध्याय १४५ । के नहीं हो सकता ।" इससे स्पष्ट है कि कर्ता माया से भिन्न है और उसको सूक्ष्म से स्थूल में बदल देने का कारण है। शिवदयालजी की पर-प्रवृत्ति को छोड़कर बाबालाल और उनके मत में विशेष कोई अन्तर नहीं दिखाई देता। सभी संत जिन्होंने दर्शन का उतना ध्यान नहीं दिया और केवल भक्ति और श्रात्मनिवेदन में लगे रहे. इसी श्रेणी में आवेंगे। इस प्रकार निर्गण संत-संप्रदाय में तीन प्रकार का दार्शनिक मत दिखाई देता है जिन्हें मैंने वेदांत की शब्दावली का व्यवहार कर अद्वैत भेदाभेद और विशिष्टाद्वैत के नाम से पुकारा है। इनके भेद को स्पष्ट करने के लिए उसे दूसरे ढंग से भी प्रदर्शित किया जा सकता है। सामान्यतया समस्त संत-समुदाय इस बात को मानना है कि सर्व शक्तिमान परमेश्वर परमात्मा इस जगत् का कर्ता-धर्ता-संहर्ता है। समस्त सृष्टि उसी में उदय होकर उसी में समा जाती है। वह सबमें व्याप्त होकर रहता है । जीवात्मा का उद्धार उसी की दया पर निर्भर है । अद्वैती लोग जो जीवात्मा और परमात्मा में पूर्णावत भाव मानते हैं वे इन सब बातों को केवल व्यावहारिक रूप में सत्य मानते हैं, परमार्थतः नहीं, किंतु विशिष्टाद्वतियों और भेदाभेदियों के अनुसार ये वस्तुतः सत्य हैं. इन दोनों मतोंवाले मानते हैं कि परमात्मा का अंश-स्वरूप होने के कारण आत्मा भी एक प्रकार से परमात्मा ही है। भेदाभेदियों के अनुसार तो यह अंश अंत में अपनी भेद सत्ता को अभेदरूप से परमात्मा में लय कर देता है; किंतु विशिष्टाद्वीतियों के अनुसार पूर्ण और अंश में यह भेद शाश्वत् है। शिवदयाल और अन्य विशिष्टाद्वौतियों में सृष्टि रचना को लेकर थोड़ा सा मतभेद है। दोनों के अनुसार इस सृष्टि का स्रजन परमात्मा की इच्छा अथवा मौज से होता है। परन्तु शिवदयाल के

  • विल्सन-"हिन्दू रिलीजस सेक्ट्स", पृ० ३५० ।

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