१४६ हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय अनुसार राधास्वामी की केवल मौज होती है, रचना का वास्तविक कार्य निर्माण अथवा निरंजन करता है जो दया के धाम राधास्वामी से बहुत नीचे रहता है परन्तु इस भेद का कोई दार्शनिक महत्व नहीं है। सृष्टि-संबंधी इन दार्शनिक सिद्धांतों और अँगरेजी दार्शनिक शब्दावली में हम अट्ठौतियों, भेदा-भेदियों और विशिष्टाद्वतियों को क्रमशः एकास्मिस्ट्स ( विवर्तवादी ), पेनैनथीस्ट्स ( सर्वात्म विकासवादी) और इक्स्टर्नल लार्ड थेअरिस्ट्स ( बाह्य विभुवादी) कह सकते हैं। आत्मा परमात्मा और जड़ जगत् के बीच का यह सम्बन्ध अद्वत- वादी कबीर की निम्नलिखित पंक्तियों में अच्छी तरह दर्शाया गया है- साधो सतगुरु अलख लखाया, आप आप दर्शाया। बीज मध्ये ज्यौं बृच्छा दरसे, बृच्छा मध्ये छ या। परमातम में आतम दरसे, आतम मध्ये माया ।। ज्यों नभ मध्ये सुन्न देखिये, सुन्न अंड अकारा। निः अच्छर ते अच्छर तैसे, अच्छर छर विस्तारा ।। ज्यों रवि मध्ये किरण देखिये अर्थ सबद के माहीं। ब्रह्म ते जीव, जीव ते मन इमि न्यारा मिला सदा हीं ॥ शिवदयाल श्रादि विशिष्टाद्वतियों तथा नानक श्रादि भेदा-भेदियों के लिए ये दृष्टांत वास्तविक अर्थ में सही हैं। परन्तु भेदा-भेदी यहीं पर नहीं रुक जायेंगे, अद्वतियों का साथ देते हुए वे भी आगे बढ़कर कहेंगे- आपुहि बीज बृच्छ पुनि आपुहि, आप फूल फल छाया । आपुहि सूर किरन परकासा, आप ब्रह्म जिंव माया ।। अंडाकार सुन्न नभ प्रापै, स्वास सबद अरथाया । निहनच्छर अच्छर छर प्रापै, मन जिव ब्रह्म समाया ।। आतम में परमातम दरसै, परमातम में झाई। झाई में परछाई दरसै, लखे कबीरा साई॥ भेद इतना ही है कि अद्वैती माया को भ्रम मात्र मानते हैं, जिसका
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