तीसरा अध्याय अस्तित्व नहीं, जब कि भेदाभेदी उसका वास्तविक अस्तित्व मानते हैं। संक्षेप में, विशिष्टाहती को सर्वत्र परमात्मा का दर्शन होता है। क्योंकि उसके अनुसार प्रत्येक वस्तु की अवस्थिति परमात्मा में और परमात्मा के कारण है और भेदाभेदियों तथा अद्धतवादियों को इसलिए कि परमात्मा के अतिरिक्त और किसी वस्तु का अस्तित्व ही नहीं है। परन्तु पिछले इन दो मतों में इतना अन्तर है कि भेदाभेदी तो दृश्य जगत् को परमात्मा का व्यक्त रूप मानते हैं और अहतवादी उसे केवल ब्रह्म के ऊपर अारोप बताकर उसका सर्वथा अनस्तित्व मानते हैं। कबीर, दादू, और सुंदरदास आदि उनके शिष्य, मलूकदास, यारी और उनकी परंपरा, जगजीवनदास, भीखा, पलटू, गुलाल ये सब अद्वैती और विवर्तवादी हैं; नानक और उनके शिष्य भेदाभेदी और सर्वात्म- विकासवादी हैं तथा शिवदयाल, तुलसीसाहब, शिवनारायण, चरनदास, बुल्लेशाह, बाबालाल, दोनों दरिया, प्राणनाथ और दीन दरवेश विशिष्टा- ती जान पड़ते हैं। यहाँ पर यह भी जान लेना आवश्यक है कि निरा सिद्धांत भी ब्रह्म का ज्ञान कराने में समर्थ नहीं है। क्योंकि सिद्धांत का श्राधार भी बुद्धिवाद ही है, किंतु ब्रह्म के सम्बन्ध में बुद्धिवाद ७. सहज ज्ञान बेकाम हो जाता है। जहाँ कहीं दर्शनशास्त्र ब्रह्मानुभूति के निकट पहुँचता है वहीं तर्क का साथ छूट जाता है। वस्तुत: दूसरे सिद्धांतों की तार्किक भ्रांतियों को दूर करने के उद्देश्य से ही एक के बाद एक दर्शन का उदय होता है। परन्तु अभी तक कोई ऐसी दार्शनिक योजना नहीं निकली है जो सर्वांश में तर्कसंगत हो । ऐसी कोई योजना निकल भी नहीं सकती। 'कबीर ने ठीक ही कहा है कि
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