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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२२८

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हिन्दी काव्य में निगुण संप्रदाय दर्शन की वहाँ तक पहुँच हो ही नहीं सकती । वस्तुतः जब तक दर्शन- शास्त्र बुद्धिवाद ही के आसरे किसी परिणाम पर पहुँचने का प्रयत्न करते रहेंगे तब तक उन्हें ऐसी पहेलियों का घर बना रहना पड़ेगा जिनको सुलझाने का उनके पास कोई उपाय नहीं है। असल में बात यह है कि बुद्धि का उस प्रयोजन से निर्माण हुआ ही नहीं है जिसके लिए सिद्धांतवादी उसका प्रयोग करना चाहते हैं। बाह्य मन और बुद्धि के परे एक और शक्ति है जिसके द्वारा निर्गुण ब्रह्म का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। प्राचीन द्रष्टा ऋषि और वेदांती इस शक्ति अथवा वृत्ति के अस्तित्व की घोषणा कब से करते श्रा रहे हैं। इसे वे साक्षात् ज्ञान, अनुभव-ज्ञान अथवा अपरोक्षानुभूति कहते हैं । संभवतः 'गीता' का दिव्य-चक्षु भी वही है ।+ मुंडक के अनु- सार निष्फल ब्रह्म न आँखों से, न वचनों से, न तप से और न कर्म से गृहीत होता है। विशुद्ध सत्व धीर व्यक्ति उसे ज्ञान के प्रसाद से साक्षात् देखते हैं । ऋग्वेद के अनुसार-सदा पश्यंति सूरयः = के श्राधार पर 'दर्शन' का 'दर्शन' नाम पड़ा है। 'दर्शन' परमात्मा के दर्शन कराता है, उसे अनुभूति-पथ में ले आता है, उसे केवल बुद्धि के सहारे समझाता नहीं है। बुद्धि के क्षेत्र को नीचे छोड़ेकर निर्गुणी संत भी अनुभूति के इसी ॐ रवींद्र-"हंड्रड सौंग्स", १०० + दिव्यम् चक्षुः गीला, ११, ८ । ४ न चक्षुषा गृह्यते, नापि वाचा नान्यदेवस्तपसा कर्मण वा । ज्ञान प्रसादेन विशुद्ध सत्त्वस्ततस्तु तम्पश्यते निष्कलं ध्यायमानः । -मुण्डक, ३, १, ८॥ परिपश्यति धीराः, वही १, १, ६ । = सदा पश्यंति सूरयः । ऋग्वेद १, २२ ।