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पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२२९

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तोसरी अध्याय राज्य में प्रविष्ट होने का दावा करता है जहाँ उसे एक मात्र परम सत्ता का साक्षात्कार होता है। अगर टेनीसन की एक पंक्ति को उद्धृत करें तो कह सकते हैं-"स्थिर सूक्ष्म सत् गंभीर तत्त्वों की उसे संवेदना हुई है।"x बिना इस अनुभूति-ज्ञान के दर्शनशास्त्र एक विवाद मात्र है परन्तु जैसा सुन्दरदास ने कहा है-"जाके अनुभव ज्ञान, वाद में न बह्यो है। दूसरों से सुनकर हमें यह विदित हो सकता है कि परमात्मा हमारे भीतर निवास करता है । परन्तु यदि हमें इस तथ्य का वास्तविक अनुभव नहीं तो इस वाचनिक ज्ञान से हमारा लाभ ही क्या हो सकता है ?’ सार वस्तु अनुभव है जो हमें तभी प्राप्त हो सकता है जब स्थूल बुद्धि से ऊपर उठकर अपरोक्षानुभूति के राज्य में हमारा प्रवेश हो। तभी हमें स्वानुभव से मालूम हो सकता है कि वस्तुतः हमारे ही भीतर ब्रह्म की सत्ता है। इसी को निर्गुणी संत सहज ज्ञान कहते हैं जिसकी ऊँचाई तक चढ़ जाना उन्होंने आवश्यक बताया है, कबीर कहते हैं- हस्ती चढ़िया ज्ञान का सहज दुलीचा डारि । स्वान रूप संस र है, पड़या भुषै झष मारि ॥ दादू ने भी कहा है- दादू सरवर सहज का तामें प्रेम तरंग । तहँ मन झूले प्रातमा, अपने साईं सँग ॥+ दादू के शब्दों में सहज बिना आँखों के बिना अंग वाले ब्रह्म को ४ दि स्टिल सिरीन ऐब्स्ट्रैक्शन्स, ही हैथ फेल्ट-"दि मिस्टिक ।" सुन्दर बिलास, १६० ।

ऊपर की मोहि बात न भावे, देखे गावै तो सुख पावै ।

-क० ग्रं॰, पृ० १६२, २१८ । ॐ क० ग्रं० पृ० ५६ पाद १५ । + बानी (ज्ञान सागर ) पृ० ४२, ७० ।