पृष्ठ:हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय.djvu/२३०

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हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय देखना, उससे बिना जिह्वा के बातें करना बिना कान के उसकी बातें सुनना और बिना चित्र के उसका चिंतन करना है। द्रष्टा अथवा ज्ञानी अपने इस अनुभव को नपी-तुली भाषा में नहीं प्रकट कर सकता और न शेष जगत् उसे समझ ही सकता है। इसी से वह रहस्यपूर्ण हो गया है। जो लोग इस अद्भूत वृत्ति अथवा ज्ञान- शक्ति का विकास नहीं कर पाते उन्हें यह रहस्यात्मकता उसके सम्बन्ध में संदेह में डाल देती है। उन्हें विश्वास नहीं होता कि कोई ऐसी भी शक्ति है जिसके द्वारा ब्रह्म-ज्ञान हो सकता है। इन संतों का भी ऐसे अविश्वासियों से पाला पड़ा था। ऐसे ही लोगों से घिरे होने के कारण कबीर को कहना पड़ा था-'दीठा है तो कस कहूँ, कह्या न को पतियाइ । ऐसे लोगों से इस अनुभव-ज्ञान का वर्णन करना वैसा ही है जैसा उलूकों से यह कहना कि दिन भर सूर्य प्रकाशमान रहता है; उन्हें कैसे विश्वास हो सकता है । यही बात बतलाने के लिए तुलसी साहब ने उल्लुओं की एक सभा का उल्लेख किया है। तामें एक घूघर उठि बोला । दिन को सूरज उगै अतोला ।। सब सुनि बात अचंभा कीना । सुनकर कोइ न हुँकारी दीन्हा ।।x परंतु यदि उल्लू सूर्य की सत्ता को न माने तो क्या सूर्य का अस्तित्व . = नैन बिन देविबा अंग, बिन पेखिबा, रसन बिन बोलिवा ब्रह्म सेती। स्त्रवन बिन सुरिंगबा, चरण बिन चालिबा, चित्त बिन चित्यबा सहज एती । बानी, १ म, पृ० ६६ १९४ ।

क० ०. पृ० १७ ।

x घट रामायण, पृ० ३७६ ।