तीसरा अध्याय १५३ बताने के उद्देश्य से सहज ज्ञान को उसके विरोध में खड़ा नहीं करता । वस्तुतः श्रापेक्षिक बुद्धि से प्राप्त वाह्य ज्ञान को भी वह अपना लेता है जिससे उसे सहज ज्ञान में बार-बार सहायता मिलती है। हमारे ये संत मध्यकाल के योरोपीय संतों के साथ इस बात में सहमत नहीं हैं कि विचार वृत्ति संवेदना में विकार उत्पन्न कर देती है जिससे सत्तत्व को ग्रहण करने के लिए उसे शुद्ध विचारविहीन रूम में रखना आवश्यक हो जाता है। जिस उन्मनदशा तक पहुँचने का प्रयत्न निर्गुणी संत करता है वह एकांत प्रेम-पुष्ट स्थिर विचार और ध्यान का परिणाम होती है। यह बात ठीक है कि मनोनिग्रह के लिए योग की क्रियाओं का भी सहारा लिया जाता है परन्तु साथ ही ध्यान और चिंतन भी बने रहते हैं, त्याग नहीं दिए जाते.। ज्ञान' शब्द जो सहजानुभूति के पर्याय के रूप में ग्रहण किया जाता है, उसकी विचारानुयायिता की ओर संकेत करता है। अपनी श्रालंकारिक वैकुंठयात्रा के लिये कबीर हाथ में प्रेम का कोड़ा लिये हुए सहज की रकाब पर पाँव रख कर बिचार-तुरंग पर सवार होता है। कबीर ने स्पष्ट शब्दों में भी कहा है 'रामरतन पाया करत विचारा' और प्रकटे विश्वनाथ जगजीवन में पाये करत विचारा + जिन सहजै विसिया तजी, सहज कहीजै सोइ । जिन सहजै हरि जी मिलै सहज कहीजै सोइ ।।... -क० ग्रं०, पृ० ४१-४२ ।
- जे. एम० स्टेवर्ट-क्रिटिकल इक्सपोजीशन ऑव वर्गसॉज
फिलासफी प०१६। ॐ अपने विचारि असवरि कीजै, सहज के पचड़े पाँव जब दीजै । चलि बैकुंठ तोहि लै तारौं थकहि त प्रेम ताजनै मारौं । + क० ग्रं॰, पृ०, ३१५, १६१ और पृ० १७६, २६७ । -क० ग्रं॰, पृ० ६६, २५ ।