१५४ हिन्दी काव्य में निर्गुण संप्रदाय एक और पद में कहा गया है -आप विचारै ज्ञानी होई.४ की प्राप्ति हो जाने पर फिर विचार की आवश्यकता नहीं रहती।%3 संभवत: शिवदयाल जी ने इसी बात को ध्यान में रखकर कहा है कि परम पद में केवल सत्यनाम है, वहाँ विचार का कोई काम नहीं। और लोगों ने विचार करने से धोखा खाया और सागर को छोड़कर बूंद में समा गये। सहज भाव की प्राप्ति मानसिक व्यापारों के द्वारा उनसे ऊपर उठकर ही हो सकती है-उनका उपयोग कर उनसे ऊपर उठने से, उनका सर्वथा वहिष्कार करने से नहीं । दादू ने इसीलिए विचार को सब व्याधियों की एकमात्र ओषधि कहा है। उनकी सम्मति में करोड़ों आचारी भी एक विचारो की बराबरी नहीं कर सकते। आचार का अनुसरण तो सारा 'जगत कर सकता है पर विचारी कोई विरला ही हो सकता है। हाँ, पाषंडपूर्ण विचार का त्याग तो अवश्य ही होगा क्योंकि वह श्रात्मवंचना का ही दूसरा रूप है जो गर्व और घृणा को जन्म देता है। अब तक ऊपर एक ही अंतवृत्ति का उल्लेख हुश्रा है जिससे ब्रह्म का साक्षात्कार होता है। परन्तु वस्तुतः सहज ज्ञानवृत्ति से नीचे और भी कुछ अंर्तवृत्तियाँ हो सकती हैं । मन की जितनी भूमिकाएँ होती हैं, उतनी ही अंतर्वृत्तियाँ भी होंगी। किसी निचली भूमिका के लिए जो अंतर्वृत्ति अथवा अंतर्ज्ञान है, उससे ऊपर की भूमिका के लिए वह -- x क० ग्रं॰, पृ० १०२, ४२ । ग्रन्थ में यह पूरा पद नानक प्रथम गुरु के नाम से दिया गया है पृ० ८१ । = अब का कीजै ज्ञान बिचारा। निज निरखत गत व्यौहारा। -क० न०, पृ० १६४, २६२ ।
- हमरे देश एक सतनाम । वहाँ विचार का कुछ नहीं काम ॥
करि विचार इन धोखा खायो । बुंद माहिं यह जाय समाया। -सार वचन, श्य, पृ० ७६ ।